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________________ ९३ शक्रेन्द्र के वज्र से भयमीत होकर भगवान की शरण ग्रहण की दूसरे दिन भगवान भोगपुर पधारे । यहाँ महेन्द्र नामक क्षत्रिय भगवान को लकडी लेकर मारने आया किन्तु सनत्कुमार देवेन्द्र ने उसे समझा कर रोक दिया । भोगपुर से विहार कर प्रभु नंदी गाँव आये और मेंढक गांव होकर कोशाम्बी नगरी में आये पौषवदि प्रतिपदा का दिन था । भगवान ने उस दिन तेरह बोल का भीषण अभिग्रह धारण किया । (१) राज कन्या हो, (२) अविवाहित हो, (३) सदाचारिणी हो (४) निरपराध होने पर भी जिसके पावों में बेडियाँ तथा हाथों में हथकडियां पड़ी हुई हो, (५) सिर मुण्डा हुआ हो, (६) शरीर पर काछ लगी हुई हो; (७) तीन दिन का उपवास किया हो, (८) पारणे के लिये उडद के बाकले (९) सूप में लिये हुए हो, (१०) न घर में हो न बाहर हो, (११) एक पैर देहली के भीतर तथा दूसरा बाहर हो । (१२) दान देने की भावना से अतिथि की प्रतीक्षा कर रही हो, (१३) प्रसन्न मुख हो और आंखों में आंसू भी हो, इन तेरह बातों से युक्त कोई स्त्री मुझे आहार दे तो मैं उसी से आहार ग्रहण करूँगा । अभिग्रह को पूरा करने के उद्देश्य से भगवान प्रतिदिन कोशाम्बी में आहार के लिए जाते और अभिग्रह के पूरा न होने पर पुनः लौट आते । इस प्रकार भगवान को भ्रमण करते चार मास बीत गये । परन्तु उन्हें आहार का लाभ न हुआ । वे नंदा के घर गये । नन्दा कोशाम्बी के महामात्य सुगुप्त की पत्नी थी। नंदा बडे आदर के साथ आहार लेकर उपस्थित हुई । परन्तु भगवान अपना अभिग्रह पूरा न होने से वे वापस लौट गये । नंदा को बहुत दुःख हुआ । यह बात उसने महामात्य से कहा इतने दिन हो गये, हमारे नगरी में भगवान को भिक्षा नहीं मिल रही हैं । अवश्य ही इसमें कोई कारण होना चाहिए। कोई ऐसा उपाय कीजिए जिससे भगवान को आहार मिले । उस समय नंदा के घर मगावती रानी की प्रतिहारी आई हुई थी। उसने जो कुछ सुना अपनी रानी से कहा । रानी ने राजा से कहा कि ऐसे राज्य से अपने को क्या लाभ जो भगवान को आहार तक नहीं मिलता ? राजा ने मंत्री को बुलाकर इस बात की चर्चा की । राजा ने अपने धर्मगुरु से सब भिक्षुओ के आचार व्यवहार पूछकर उनका अपनी प्रजो में प्रचार किया परन्तु फिर भी भगवान को आहार प्राप्त नहीं हुआ। भगवान के अभिग्रह को पांच महिने हो चुके थे और छठा महिना पूरा होने में सिर्फ पाँच दिन शेष रह गये थे । भगवान नियमानुसार इस दिन भी कोशम्बी में भिक्षाचर्या के लिये निकले और फिरते हुए सेठ धनावह के घर पहुंचे। यहां आपका अभिग्रह पूर्ण हुआ । और आपने चन्दनाराजकुमारी के हाथों से भिक्षा ग्रहण की । उस समय आकाश में देव दुंदुभि बज उठी । पांच दिव्य प्रकट हुए । और चन्दना का रूप पहले से भी अधिक चमक उठा । और सर्वत्र उसके शील की ख्याति फैल गयी । राजा और प्रजा में प्रसन्नता का वातावरण फैल गया । कोशांबी से सुमंगल सुच्छेता पालक आदि गांवों में होते हुए भगवान श्रीमहावीर चम्पानगरी पधारे और चातुर्मासिक तप कर वहीं स्वादित्त ब्राह्मण की यज्ञशाला में वर्षांवास किया । यहाँ पर भगवान के तप साधना से आकृष्ट होकर पूर्णभद्र और माणिभद्र नामक दो यक्ष रात्रि के समय आकर आपकी भक्ति करने लगे । स्वातिदत्त को जब इस बात का पता चला तो वह भी भगवान के पास आया और बोला भगवन ! आत्मा क्या वस्तु है ? सूक्ष्म का क्या अर्थ है और प्रत्याख्यान किसे कहते हैं ? भगवान ने उसका समाधान कर दिया । चातुर्मास की समाप्ति के बाद भगवान जंभिय गाँव की तरफ पधारे। जंभियगांव में कुछ समय ठहर कर भगवान वहां से मिंढिय गांव होते हुए छम्माणि गये और गांव के बाहर कायोत्सर्ग में लीन हो गये । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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