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अच्छी नहीं लगी । वह तत्काल भगवान के पास आया और उन्हें ध्यान से विचलित करने के लिए उसने भगवान को बीस प्रकार के उपसर्ग किये। किन्तु वह भगवान को ध्यान से विचलित नहीं कर सका । इसके बाद भी वह भगवान को छ माह तक निरन्तर कष्ट देता रहा किन्तु वह भगवान को किसी भी रूप में विचलित नहीं कर सका । अन्त में हार कर भगवान के पास आया और बोला- “इन्द्र ने आपकी जो स्तुति की थी वह पूर्णतः सत्य थी। आप सत्य प्रतिज्ञ है और में अपनी प्रतिशा से भ्रष्ट हुआ हूँ । मुझे क्षमा करिये, में भविष्य में ऐसा अपराध कभी नही करूँगा | भगवान समतारस के सागर थे। उन्होंने संगम को क्षमा प्रदान कर दी । पूरे छ महिने तक संगम देव के द्वारा दिये गये विविध कष्टो को सहने के बाद भगवान ने वज्रगाम में एक वत्सपालक वृद्धा के हाथ से खीर से पारण किया । जगाम से भगवान ने श्रावस्ती की ओर विहार किया । अलभिया सेयविया आदि अनेक नगरों में होते हुए आप आवस्ती पहुँचे और नगर के उद्यान में ध्यानारूढ हो गये ।
श्रवस्ती से कौशाम्बी, वाराणसी राजगृह, मिथिला आदि अनेक नगरों में होते हुए आप वैसाली पधारे। और ग्यारहवां चातुर्मास आपने वही व्यतीत किया। वैशाली में एक जिनदत्त नामका श्रेष्ठीं रहता था । उसकी ऋद्धि-समृद्धि क्षीण हो जाने से जगत में वह जीर्ण श्रेष्ठी के नाम से विख्यात था । जिनदत्त सरल एवं परम श्रद्धालु था। वह प्रतिदिन भगवान को वन्दन करने के लिये जाता था और आहार पानी के लिए प्रार्थना करता था। लेकिन भगवान भगवान नगर में कभी जाते ही न थे । सेठ ने सोचा भगवान के मासखमण जब पूरा होगा, तब आयेंगे। महीना पूरा हुआ तब सेठ ने विशेष आग्रह पूर्व भगवान से प्रार्थना की लेकिन भगवान न आये । तब उसने द्वि मासिक मास खमण की कल्पना की । जब दो महीना के अन्त में भी प्रार्थना करने पर भगवान नहीं आये तो उसने त्रिमासिक मास खमन की कल्पना की जब तीन महीने पूरे हुए तो उसने फिर भगवान से प्रार्थना की और इस बार भी जब न आये तो उसने सोच लिया कि भगवान ने चातुर्मासिक तप किया है। अब वह चातुर्मासिक तप की समाप्ति की प्रतीक्षा करने लगा। उसने सोचा की चातुर्मासिक तप का अपने जीवन को सफल करूंगा ।
पारणा कराऊँगा और
चातुर्मास समाप्त हुआ। जीर्ण सेठ ने प्रभुको भक्ति पूर्वक वन्दनाकर प्रार्थना की- भगवन् ! आज मेंर घर पारणा करने के लिये पधारिए । वह घर आया और भगवान के आने की प्रतीक्षा करने लगा समय पर प्रभु आहार के लिये निकले और घूमते हुए पूरण सेठ के घर में प्रवेश किया। भगवान को देखकर पूरण सेठ ने दासी से संकेत किया जो कुछ तैयार हो इन्हें दे दो । दासी ने उबाले हुए उड़द के बाकुले भगवान के हाथों में रख दिये। भगवान ने उसे निर्दोष आहार मानकर ग्रहण किया । देवताओं ने उसके घर पंच दिव्य प्रकट किये। लोग उसकी प्रशंसा करने लगे वह मिथ्याभिमानी पूरण कहने लगा कि मैंने खुद प्रभु को परमान्न से पारणा कराया है।
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जीर्ण सेठ प्रभु को आहार देने की भावना से बहुत देर तक राह देखता रहा। उसके अन्तकरण में शुभ कामनाएं उठ रही थी उसी समय उसने आकाश में होता हुआ देव दुंदुभि नाद सुना अहोदान अहोदान ! की ध्वनि से उसकी भावना भंग हुई। उसे मालूम हुआ कि प्रभु ने पूरण सेठ के घर पारणा कर लिया है तो वह बहुत निराश हो गया। अपने भाग्य को कोशने लगा। पूरण सेठ के दान की प्रशंसा करने लगा । शुभ भावना के कारण जीरण सेठ ने अच्युत देवलोक का आयु बांधा। वैशाली से विहार कर प्रभु अनेक स्थानों में भ्रमण करते हुए सुसुभारपुर में आये और अष्टम तप सहित एक रात्रि की प्रतिमा ग्रहण कर अशोक वृक्ष के नीचे ध्यान करने लगे । यहां चमरेन्द्र ने
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