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आपने चातुर्मासिक तव कर पारणा किया । वहां से विहार कर आप कुण्डाक सन्निबेश होते हुए मद्दना सन्निवेश बहुसाल तथा लोहार्गल पधारे । लोहार्गल के राजा जितशत्रु ने आपका शत्रुपक्ष का आदमी मानकर पकड लिया । यहां उत्पल ज्योतिषी राजा को आपका परिचय देकर आपको मुक्त करवा दिया । वहां से पुरिमताल उन्नाग गोभूमि होते हुए राजगृह पधारे । आठवां चातुर्मास आपने राजगृह में ही व्यतीत किया।
चातुर्मास के बाद विशेष कर्मों को खपाने के लिये आपने बज्रभूमि तथा शुद्धिभूमि जैसे अनार्य प्रदेश में विहार किया यहाँ भी आपको अनेक प्रकार के उपसर्ग सहने पडे । अनार्य भूमि में आपको चातुर्मास के योग्य कही भी स्थान नहीं मिला अतः आपने नौवा चातुर्मास चलते फिरते व्यतीत किया ।
अनार्य भूमि से निकलकर भगवान गोशालक के साथ कूर्मग्राम पधारे । कूर्म ग्राम के बाहर वैश्यायन नामका तापस औंधे मुख लटकता हुआ तपस्या कर रहा था । धूपसे आकुल होकर उसकी जटाओं से जूएँ गिर रही थी और वैश्यायन उन्हें पकड पकड कर वापिस अपनी जटा में डाल देता था । गोशालक यह दृश्य देखकर बोला--भगवान् ! यह जुओं का सेजारी-स्थान देने वाला मुनि है या पिचास ?
गोशालक ने बर बार उक्त वात दोहराई । गोशालक के मुह से उक्त बाते बार बार सुनकर वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ और उसने गोशालक को मारने के लिये तेजो लेश्या छोडी । परन्तु उस समय भगवान ने शीतल लेश्या छोडकर गोशालक को बचा लिया । इस अवसर पर गोशालक ने ते जो लेश्या प्राप्ति का उपाय भगवान से पूछा। भगवान ने उपाय बता दिया । तेजो लेश्या की साधना करने के लिये वह भगवान से जुदा हुआ और श्रावस्ती में हालाहला कुम्भारिण के घर रह कर तेजो लेश्या की साधना करने लगा । भगवान की कही हुई विधि के अनुसार छ मास तक तप और आतापना करके गोशालक ने तेजो लेश्या प्राप्त करली। और परीक्षा के तौर पर उसका पहला प्रयोग कुएँ पर पानी भरती हुइ एक दासी पर किया ।
तेजो लेश्या प्राप्त करने के बाद गोशालक ने छ दिशाचरों से निमित्तशास्त्र पढा जिससे वह सुख दुःख लाभ; हानि जीवित और मरण इन छ बातों में सिद्ध वचन नैमित्तिक बन गया । तेजो लेश्या और निमित्त ज्ञान से जैसी असाधारण शत्तियों से गोशालक का महत्व बहूत बढ़ गया और
और उसके अनुयाई बढने लगे । वह अपने संप्रदाय आजीवकों का आचार्य बन गया ।
सिद्धार्थ पुर से भगवान वैशाली पधारे । वहाँ के बालक आपको पिशाच मान कर सताने लगे । सिद्धार्थ राजा के मित्र शंख को इस बात का पता लगा तो उसने बालकों को भगादिया और शंखराजाने भगवान से क्षमा याचना कर वन्दना की । वैशाली से भगवान वाणिज्य ग्राम पधारे । वैशाली और वाणिज्य ग्राम के बीच गंडकी नदी पडती थी। भगवान ने उसे नावद्वारा पार किया । वाणिज्य ग्राम में एक आनन्द नामक अवधिज्ञानी श्रावक था उसने आपको वन्दना कर कहा-'भगवान् ! अब आप को अल्प काल ही में केवल ज्ञान-केवल दर्शन उत्पन्न होगा ।
वाणिज्य ग्राम से भगवान क्रमशः विचरण करते हुए श्रावस्ती पधारे । आपने वर्षाकाल समीप जान दसवां चातुर्मास श्रावस्ती में ही व्यतीत किया । चातुर्मास की समाप्ति के बाद भगवान सानुलठ्ठिय नामक ग्राम में पधारे । वहां आपने सोलह दिन की तपस्या की । और महाभद्र सर्वभिद्र प्रतिमाओ नामक तप का आराधन किया । अपनी तपस्या का पारणा आनन्द गाथापति को दासी द्वारा फेंके जाने वाले अन्न से किया । सानुलट्ठिय से भगवान ने विहार दृढभूमि की तरफ किया और पेढाल गांव के पास स्थित पेढाल उद्यान में पोलास नामक चैत्य में जाकर अष्टम तप करके रातभर एक अचित्त पुद्गल पर अनिमेष दृष्टि से ध्यान किया । भगवान के इस ध्यान की सौधर्मेन्द्र ने प्रशंसा कि संगम नाम के देव को वह प्रशंसा
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