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________________ ८९ भगवान ने आगे विहार किया और उत्तर वाचाला गांव में नागसेन के घरपर जाकर पंद्रह दिन के उपवास का पारणा खीर से किया । वहाँ देवताओं ने पंज दिव्य प्रकट किये । नागसेन का लडका १२ वर्षो से बाहर चला गया था । अकस्मात् वह भी उसी दिन घर वापस लौटा । उत्तर वाचाला से विहार कर भगवान श्वेताम्बीका नगरी आये । वहाँ के राजा प्रदेशी ने भगवान को वैभव पूर्वक वन्दन किया ये प्रदेशीराजा केशी श्रमण से श्रावक व्रत ग्रहण करनेवाले प्रदेशीराजा से भिन्न है । वहाँ से भगवान ने सुरभिपुर की ओर विहार किया । सुरभिपुर जाते हुए; मार्ग में भगवान को रथों पर जाते हुए पांच नैयक राजा मिले । उन सब ने भगवान को वन्दन किया । ये राजा प्रदेशी राजा के पास जा रहे थे। _ आगे विहार करते हुए रास्ते में गंगा नदी आयी भगवान ने सिद्धदत्त नाविक की नौका में बैठकर गंगा नदी पार की । नौका पार करते समय सुदंष्ट्र नामक देवने नौका को उलटाने की कोशिश की किन्तु भगवान के भक्त कम्बल और शंबल नामके नागकुमार देवोने उसके इस दुष्ट प्रयत्न को सफल नहीं होने दिया । भगवान नौका से उतरकर थूनाक सन्निबेश पधारे और वहाँ गांव के बाहर ध्यान करने लगे । थूनाक सन्निवेश में 'पुष्प' नामक सामुद्रिक महावीर के सुन्दर लक्षण देखकर बडो प्रभावित हो गया । उसे पता लगा कि यह भावी तीर्थकर है। ___ भगवान यूनाक से विहारकर राजगृह पधारे । वहाँ तन्तुवाय की शाला में ठहरे । और वर्षांकाल वहीं व्यतीत करने लगे। इसी तन्तुवाय शाला में गोशालक नामक एक मंख जातीय युवा भिक्षु भी चातुसि बिताने के लिये ठहरा हुआ था । भगवान महावीर मास खमण के अन्त में आहार लेते थे । महावीर के इस तप, ध्यान और अन्य गुणों से गोशालक बहुत प्रभावित हुआ और उसने महावीर का शिष्य होने का निश्चय कर लिया । उसने भगवान से भेट की और अनेक बार अपना शिष्याव स्वीकार करने की प्रार्थना की । अन्त में भगवान ने मौन भाव से उसका शिष्यत्व स्वीकारकर लिया । चातुर्मास की समाप्ति के बाद भगवान कोल्लाग सन्निवेश पधारे । कोल्लाग से भगवान गोशालक के साथ सुवर्णखल, नन्दपादक, आदि गावों से होते हुए चंपा पधारे । तीसरा चातुर्मास भगवान ने चंपा में ही व्यतीत किया । इस चातुर्मास में भगवान ने दो दो मास की तपस्या की पहले दोमासखमण का का पारणा चम्पा में किया और दूसरे दो मास खमण का पारणा चपा के बाहर । वहाँ से आपने कालाय सन्निवेश की ओर विहार कर दिया पत्तकालय, कुमारा सन्निवेश; चोराक सन्निवेश आदि गावों में अनेक प्रकार के उपसर्ग और परिषह सहते हुए भगवान पृष्ट चपा पधारे चौथा चातुर्मास आपने पृष्ठ चम्पा में ही व्यतीत किया । चातुर्मास समाप्त होने पर बाहरगाँव में तप का पारणा कर आपने कयंगला की ओर विहार कर दिया । कयंगला में दरिद्दथेर के मन्दिर में एक रात भर रहे । साथ में गोशालक भी था । दसरे दिन 'विहार कर भगवान श्रावस्ती पधारे । भगवान वहाँ कायोत्सर्ग किया। बहां से हलिङ्ग गांव पधारे और गत्रि में हलिदुगा नामक विशाल वट्ट वृक्ष के नीचे ध्यान किया । वहाँ आग के कारण ध्यानस्थ भगवान के पैर झुलस (जल) गये । दोपहर के समय भगवान ने वहाँ से विहार किया Fिऔर, नँगला गांव के बहार वासुदेव के मन्दिर में जाकर ठहरे । नगला से आप आवती गांव गये और बलदेव के मंदिर में ठहरकर ध्यान किया । आवतासे विहार करते हुए भगवान और गोशालक चोराय सन्निवेश होकर कलंबुआ सन्तिवेश की ओर गये । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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