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________________ ८८ वाचाला नामके दो निवेश थे एक उत्तरवाचाला और दूसरा दक्षिणवाचाला। दोनों सन्निवेशों के बीच स्वर्णालुका तथा रुप्पवालुका नामकी दो नदियाँ बहती थी | भगवान महावीर दक्षिणवाचाला होकर उत्तवाचाला जा रहे थे || उस समय दीक्षा के समय का देव दूष्यवस्त्रको सुवर्णबाळु का नदी के किनारे भगवान ने त्याग कर दिया। भगवान १३ महिने से कुछ अधिक समय तक सचेलक रहे इसके बाद भगवान यावज्जीवन अचेलक रहे ऐसा भगवान ने आचारांग सूत्र में कहा है । ( यही बात पू० आचार्य श्रीवासी लालजी महाराजने आचारांग सूत्र की टीका में भी लिखी है) उत्तर वाचाला जाने के लिए दो मार्ग थे । एक कनखल आश्रमपद के भीतर होकर जाता था । और दूसरा आश्रम के भीतर होकर जाता था। भीतरवाला मार्ग सीधा सीधा होने पर भी भयंकर और उजड़ा था | बाहर क मार्ग लम्बा और टेढा था। भगवान महावीर ने भीतर के मार्ग से प्रयाण कर दिया मार्ग में उन्हें ग्वाले मिले। उन्होंने भगवान से कहा- देवार्य यह मार्ग ठीक नही है । रास्ते में एक भयानक दृष्टि विष सर्प रहता हैं जो राहगिरों को जलाकर भस्म कर देता है। अच्छा हो आप वापस लौटकर बाहर के मार्ग से जायें। भगवान महावीर ने उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया वे चलते हुए सर्प के बिल के पास यक्ष के देवालय में जाकर ध्यानारूढ हो गये । सारे दिन आश्रम पद में घूमकर सर्प जब अपने स्थान पर लौटा तो उसकी दृष्टि ध्यान में खड़े भगवान पर पडी । वह भगवान को देखकर अत्यन्त क्रुद्ध हुआ । उसने अपनी विषमय दृष्टि भगवान पर डाली साधारण प्राणी तो उस सर्प की एक ही दृष्टिपात से जलकर भस्म हो जाता था । किन्तु भगवान पर उस सर्प की विषमयी दृष्टि का कुछ भी प्रभाव नहीं पडा। दूसरी तीसरी बार भी उसने भगवान पर विषमय दृष्टि की किन्तु भगवान पर उसका कुछ भी असर नहीं पडा । तीन बार विषमय एवं भयंकर दृष्टि डालने पर भी जब भगवान को अचल देखा तो वह भगवान पर अत्यन्त क्रुद्ध हुआ और वह भगवान पर जोरोंसे झपटा। उसने भगवान के अंगुष्ठ को मुंह में पकड़ लिया और उसे चूसने लगा। रक्त के स्वाद में दूध सा स्वाद पाकर वह स्तब्ध हो गया। वह भगवान की ओर देखने लगा भगवान की शान्त मुद्रा देखकर उसका क्रोध शान्त हो गया । इसी समय महावीर ने ध्यान समाप्त कर उसे संबोधित करते हुए कहा- " समझ ! चण्डकौशिक समझ ! भगवान के इस वचनांमृत से सर्प का क्रूर हृदय पानी पानी हो गया । वह शान्त होकर सोचने लगाausaौशिक यह नाम मैंने कहीं सुना हुआ है। उहापोह करते करते उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया। किस प्रकार उसका जीव पूर्व के तीसरे भव में इस आश्रम का ' चण्डकौशिक' नामका कुलपति था; किस प्रकार दौडता हुआ गढे में गिरकर मरा और पूर्व संस्कार वश भवान्तर में सर्पंकी जाति में उत्पन्न होकर इसका रक्षण करने लगा इत्यादि सब बातें उसको याद आगई । वह विनीत शिष्य की तरह भगवान महावीर के चरणों में गिर पड़ा और अपने पाप का प्रायाश्चित करते हुए वर्तमान पापमय जीवन का अन्त करने के लिये अनशन कर लिया । भगवान भी वहीं ध्यानारूढ हो गये । लगे और उसे पत्थर मारने लगे। ग्वालों ने जब निकट आये और भगवान को वन्दन कर उ । सर्प को स्थीर देखकर ग्वाले उसके नजदीक आने देखा कि वह सर्प किंचित् मात्र भी हिलता नहीं, तो वे महिमा गाने लगे । ग्वालों ने सर्प की पुजा की दूध दही और घी बेचनेवाली जो औरते उधर से जाती तो वे उस सर्प पर भक्ति से घी आदि डालती और नमस्कार करती । फल यह हुआ कि सर्प के शरीर पर चींटियाँ लगने लगीं । इस प्रकार सारी वेदनाओं को समभाव से सहन करके वह सर्प आठवें देवलोंक सहस्त्रकार में देव रूप से उत्पन्न हुआ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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