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________________ दूसरे दिन प्रातः ही जब भगवान विहार करने लगे तब कुलपति ने अगामी चातुर्मास आश्रम में ही व्यतीत करने की प्रार्थना की । ध्यान के लिये योग्य एकान्त स्थल देखकर भगवान ने कुलपति की प्रार्थना स्वीकार की । भगवान ने वहा से विहार कर दिया । आस पास के स्थलों में विचर कर भगवान चातुर्मास काल व्यतीत करने के लिये आश्रम में पधार गोकुलपति ने उन्हें घास की एक झोपडी में ठहराये, भगवान झोपडो में रहकर अपना सारा समय ध्यान में व्यतीत करने लगे । यद्यपि कुलपति के आग्रहवश प्रभु ने वर्षांकाल आश्रम में ही बिताना स्वीकार तो कर लिया था पर कुछ समय रहने पर उन्हें मालूम हो गया कि यहाँ पर उन्हें शांति नहीं मिलेगी । आश्रमवासियों कि विपरीत प्रवृत्तियों के कारण भगवान के ध्यान में विक्षेप होने लगा । जंगलों में घास का अभाव हो गया था वर्षा से नवीन घास अभी उगी न थी । इसलिये जंगल में चरने वाले ढोर जहां घास देखते वहीं दौड जाते । कुछ गायें तापसों के आश्रम में आती और झोपडियों का घास चर जाती तापस लोग अपनी झोपडियों की रक्षा के लिये डंडे ले ले कर गायों के पीछे दौंडते और उन्हें मार भगाते । किन्तु भगवान तापसों की इन प्रवृत्तियों में जरा भी भाग नहीं लेते। वे सदैव ध्यान में लीन रहते कौन क्या करता है उनपर वै जरा भी ध्यान नहीं देते । भगवान की झोपडी के घास को गाये खा जाती तब भी भगवान उन्हे जरा भी नहीं रोकते । भगवान की इस अपूर्व क्षमता से. तापस जल उठे । कुलपति के पास आकर कहने लगे अरे-आप यह कैसे अतिथि को लाये हो ? वह तो उदासीन और आलसी है । झोपडी का घास ढोर खा जाते हैं और वह चुपचाप बैडा देखता रहता हैं । तापसों की इस शिकायत पर कुलपति स्वयं भगवान के पास आया और बोला-कुमार ! एक पक्षी भी अपने घोसले का रक्षण करता हैं और तुम क्षत्रिय होकर भी अपने आश्रयस्थान की रक्षा नहीं कर सकते महद आश्चर्य है । आश्रमवासियों के इस व्यवहार से भगवान का दिल उठ गया । उन्होंने सोंचा-अब मेरा यहाँ रहना आश्रमवासियों के लिये अप्रितकर होगा; इसलिये वर्षाकाल के पन्द्रह दिन व्यतीत हो जाने पर भी वहां से अस्तिक ग्राम की ओर प्रमाण कर दिया । उस समय भगवान ने पांच प्रतिज्ञाएँ की १-अब से अप्रीतिकर स्थान में नहीं रहूँगा || २-नित्य ध्यान में रहूँगा । ३-नित्य मौन रहूँगा १-हाथ में भोजव करूँगा । ५-गृहस्थ का विनय नहीं करूंगा। श्री भगवान मोराक गांव से विहार कर अस्थिक गांव में आये । वहां शूल पानी व्यंतर के मन्दिर में ठहरने के लिये भगवान ने गांव वालों से आज्ञा मांगी। गांववालों ने कहा देवार्य ! रात्रि में यदि कोई पथिक इस मन्दिर में ठहरता है तो यह यक्ष उसको मार डालता है। अत: यहां रहना खतरनाक हैं ।। भगवान ने कहा-इस वात की आप लोग चिन्ता न करें । मुझे केवल आपलोगों की अनुमति चाहिये। भगवान के विशेष आग्रह पर गांववाले ने मझबूर होकर मन्दिर में ठहरने की आज्ञा दे दी। भगवान मन्दिर के एक कोने में जाकर ध्यान करने लगे ॥: भगवान की इस निर्भयता को शूलपानी यक्ष ने धृष्टता समझा । उसने सोचा-यह व्यक्ति बडा धृष्ट है । मरने की इच्छा से ही यहां आया है। गांववालों के मना करने पर भी इसने यहां रात्रि व्यतीत करने का निश्चय किया है । रात होने दो फिर इसकी खबर लेता ॥ सूर्य अस्ताचलकी ओर चला गया । धीरे धीरे सर्वत्र अंधेरा फैल गया। शूलपानी यक्ष ने भी अपने परा क्रम दिखलाने शुरू कर दिये । सर्वप्रथम उसने अट्टहास किया जिसकी आवाज से सारा जंगल गूंज उठा । गांव में सोते हुए मनुय्यों की छातियां धड़कने लगी ओर हृदय दहल उठे पर इस भीषण अठास का भगवान पर जरा भी असर नहीं हुआ । वे निश्चल भाव से ध्यान में मन रहे । अब शूलपानी यक्षने हाथी का रूप बनाकर भगवान पर दन्त प्रहार किये और उन्हे पेरों तले रौंधा किन्तु शूलपानी यक्ष फिर भी उन्हें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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