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ने मेरे बैल नहीं बताये । ऐसा कह कर वह भगवान को मारने के लिए दौडा। भगवान शान्त थे । उस समय इन्द्र अपनी सौधर्म सभा में बैठकर अंतरमें विचार कर रहा था कि जरा देखू तो सही कि भगवान प्रथम दिन क्या करते हैं । इन्द्र ने अपने ज्ञान का अयोंग लगाया तो पता चला की ग्वाला भगवान को मारने के लिए भगवान के सन्मुख भाग रहा । इन्द्र ने अपने स्थान पर रह कर उसे तत्काल स्तंभित कर दिया । वह ग्वाले के पास आया और बोला अरे दुरात्मन ! तूं यह क्या अनर्थ करने जा रहा है. जानता नहीं ये कौन हैं ? ये महाराजा सिद्धार्थ के पुत्र वर्द्धमान है समस्त ऋद्धियों का त्याग कर श्रमण बने हैं । ग्वाला यह सुनकर लज्जित हो गया और बैलों को लेकर चला गया ।
ग्वाले के चले जाने के बाद इन्द्र भगवान महावीर कों वन्दन कर बोला- हे भगवन ! आपको भविष्य में बडे बडे कष्ट झेलने पड़ेंगें। आपकी आज्ञा होतो मैं आपकी सेवा करूं ।
भगवान ने उत्तर दिया-हे शक्र तुम्हारा यह शिष्टाचार विनय उचित ही हैं किन्तु न अभी ऐसा हुका है न होगा और न होता है कि देवेन्द्र सुरेन्द्र की सहायता से अर्हन्त केवलज्ञान और केवल दर्शनरूप सिद्धि प्राप्त करते हों । यदि अन्य की सहायता से ही आत्मापूर्व संचित कर्म खपा सकता हो तो धर्म क्रिया निष्फल हो जायगी प्रत्येक जीव को अपने संचित कर्मो को अपने ही पुरूषार्थ से खपाना होता है यह कह कर भगवान मौन हो गये और ध्यान में लीन हो गये क्योंकि महापुरुष हमेशा मितभाषी होते हैं ।।
इतने में भगवान के मोसी का पुत्र सिद्धार्थ जिसने बालतप करके व्यन्तर पद पाया था वह उधर से निकला। भगवान को ध्यान रत देख कर वह वन्दन के लिए उनके पास आया । इन्द्र ने सिदार्थ कहा-हे सिद्धार्थ भगवान तेरे मोसी के पुत्र है। दूसरी बात मेरी यह आशा है कि तुम भगवान के पास रहो और भगवान को कोई मारणान्तिक कष्ट न दे इस बात का ध्यान रखो । इन्द्र की आज्ञा को सिद्धार्थ ने बडे विनय पूर्वक स्वीकार की । इन्द्र भगवान को वन्दन कर अपने स्थान चला गया ।
दूसरे दिन भगवान कर्मारग्राम से विहार कर कोल्लाग सन्निवेश में बहुल नामका ब्राह्मण रहता घर उत्सव था । उसने आगत अतिथियों के लिए विशिष्ट प्रकार का भोजन बनाया था । इधर भगवान भी पारने के समय उंच नीच मध्यम कुलों में प्रयटन करते हुए बहुल के घर पहुँच गये । भगवान के दिव्य रूप शरीर की कान्ति और श्रेष्ट लक्षणों को देखकर सोचने लगा ये कोई विशिष्ट महात्मा लगते हैं। ऐसा दिव्य भव्य शरीर सामान्य व्यक्ति का नहीं हो सकता। यह सोचकर उसने भगवान का बडा विनय किया ।
और आदर पूर्वक परमान्न (खीर) को भगवान के छिद्र रहित हस्तपुट में अर्पण किया। भगवान ने उसे ग्रहन किया । भगवान को छठ का पारणा हुआ। देवताओंने भक्ति पूर्वक वसुधारादि पाँच दिव्य प्रगट किये । दीक्षा के समय प्रभु के शरीर पर देवों ने गोशीर्ष चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थों का विलेपन किया
अनेक भँवरे आकर भगवान को डंक मारते थे । अनेक युवक भगवान के शरीर के सुगन्ध से आकर्षित हों उनके पास आकर पूछते थे “आपका शरीर ऐसा सुगन्ध पूर्ण कैसे रहता है ? हमें भी तरकीब बताईए वह औषध दीजिए जिससे हमारा शरीर भी सुगंध मय रहे ।” परन्तु मौनालम्बी प्रभु से. उन्हें कोई उत्तर नहीं मिलता । इससे वे बहुत क्रुध होते और प्रभु को अनेक कष्ट देते । अनेक स्वेच्छाचारिणी स्त्रियां प्रभु के मन मोहक रूप को देखकर कामपीडित होती और दवा की तरह प्रभुसे अंगसंग चाहती परन्तु वह नहीं मिलता । तब वे अनेक तरह का उपसर्ग करती और अन्त हारकर चली जाती ।
भगवान महावीर कोल्लांग सन्निवेश से विहार कर मोंराक सन्निवेश पधारे । वहां दइज्जन्तक नामक तापसों का आश्रम था। भगवान वहाँ पधारे । उस आश्रम का कुलपति राजा सिद्धार्थ का मित्र था। भगवान महावीर को आते देखकर वह उनके सम्मान के लिए सामने गया। कुलपति की प्रार्थना पर भगवान ने उस रात्रि को वही रहने का विचार किया । वे रात्रि की प्रतिमा को धारण कर वही ध्यान करने लगे।
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