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________________ (3) हेनरी फेयॉल की क्रियात्मक अवधारणा - प्रसिद्ध प्रबन्धक हेनरी फेयॉल के अनुसार, 'प्रबन्धन का आशय पूर्वानुमान लगाने, योजना बनाने, संगठन की व्यवस्था करने, निर्देश देने, समन्वय करने तथा नियन्त्रण करने से है। 122 इस प्रकार, फेयॉल के द्वारा प्रबन्धन को एक प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया गया है। वस्तुतः, जैनआचारमीमांसा पर आधारित जीवन-प्रबन्धन के लिए भी जीवन की आचार व्यवस्था का सुव्यवस्थित नियोजन (Planning), जीवन में परस्पर सहयोग की पूर्ति के लिए संगठन (Organising) एवं निर्देशन (Directing) और कार्य के सम्यक् निष्पादन के लिए जीवन के विविध तत्त्वों के बीच उचित समन्वयन (Coordinating) एवं नियन्त्रण (Controlling) की कदम-कदम पर आवश्यकता होती है। (4) थियो हेमन की अवधारणा - इनके अनुसार, प्रबन्धन शब्द का प्रयोग तीन अर्थों में किया जाता है123 - * संज्ञा - प्रबन्धन का तात्पर्य प्रबन्धकीय कार्यकर्ताओं (Managerial Personnel) से है, जो सभी कार्यरत व्यक्तियों की क्रियाओं पर नियन्त्रण रखते हैं। ★ प्रक्रिया – प्रबन्धन वास्तव में एक प्रक्रिया है, जिसके आधारभूत अंग हैं – नियोजन, संगठन, अभिप्रेरण तथा नियन्त्रण एवं जिसमें सामूहिक प्रयासों के सर्वश्रेष्ठ उपयोग के लिए मानव (Man), माल (Material), मशीन, विधि (Method) एवं मुद्रा (Money) का प्रयोग होता है, जिससे पूर्व निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति हो सके। ★ अनुशासन या विधा (Discipline) - प्रबन्धन ज्ञान की एक स्वतन्त्र शाखा है, जो कला, विज्ञान, वाणिज्य, अभियांत्रिकी, चिकित्सा आदि के समान ही एक अनुशासन या विधा है। प्रस्तुत शोध-ग्रन्थ में प्रयुक्त ‘जीवन-प्रबन्धन' शब्द का प्रयोग भी अनेक अर्थों में सम्भव है। प्रसंगानुसार यह एक व्यक्ति (Life Manager) या एक प्रक्रिया (Process) या एक विधा (Discipline) का द्योतक है। (5) हेरॉल्ड कूण्ट्ज की अवधारणा – इनके अनुसार, “प्रबन्धन अन्य लोगों के द्वारा और उनके साथ मिलकर काम करने की कला है (Getting the things done through and with people)।" इस अवधारणा का आशय यह है कि प्रबन्धन एक अधिनायकवादी (तानाशाही) नहीं, वरन् प्रजातांत्रिक तकनीक है। इसमें टीम भावना पर विशेष बल दिया गया है तथा सिर्फ नियन्त्रण पर नहीं, वरन् अभिप्रेरण की आवश्यकता को भी स्वीकारा गया है। 124 यह जैनसंघ और जैनसाधना-व्यवस्था की विशेषता है कि साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका परस्पर उत्तरदायी भी होते हैं और अधिकारी भी। इतना ही नहीं, सभी परस्पर मिलकर आत्म-उत्थान के मार्ग में आगे बढ़ते हैं। 31 अध्याय 1 : जीवन-प्रबन्धन का पथ 31 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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