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________________ को लेकर जैनागम अनेकान्त-दृष्टि को महत्त्व देता है और यह कहता है कि सामाजिक-प्रबन्धन अनेकान्त-दृष्टि के आधार पर ही सफल हो सकता है। समाज के सभी सदस्यों की योग्यता और रुचि में वैविध्य पाया जाता है, अतः सामाजिक-प्रबन्धन में उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। सामाजिक जीवन के दो पक्ष हैं – स्वार्थ एवं परार्थ, लेकिन जैनाचार्यों की मान्यता यह है कि स्वार्थ और परार्थ के पारस्परिक सामंजस्य से ही परमार्थ का विकास होता है। जैनदर्शन यह मानता है कि स्वहित और लोकहित दोनों ही अपेक्षित हैं, लेकिन नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों अर्थात् परमार्थ की उपेक्षा करके इन दोनों में सम्यक् समन्वय नहीं किया जा सकता। परमार्थ में स्वार्थ और परार्थ दोनों ही समाहित होते हैं। परमार्थ के क्षेत्र में जो पारस्परिक सहयोग एवं लोकमंगल की भावना रही है, वही समाज-प्रबन्धन का मूलभूत आधार है, इसीलिए जैनदर्शन में दान के स्थान पर संविभाजन की बात कही गई है। हमारे पास जो अतिरिक्त संचय है, उस पर मात्र हमारा ही अधिकार नहीं है। दूसरे शब्दों में, उचित उपयोग के पश्चात् जो बचत के रूप में हमारे पास रहता है, वह व्यक्तिगत मालकियत का विषय नहीं है। अतः संविभाजन सामाजिक व्यवस्था का एक आदर्श रूप है। इस प्रकार, जैनदर्शन दान को संविभाजन के रूप में ही मान्यता देता है। इसका तात्पर्य यह है कि व्यक्ति जो भी देता है, वह वस्तुतः जिस पर दूसरों का अधिकार है, उसे ही देता है। इससे दान के साथ अहंकार की भावना का विकास नहीं होता। इस सैद्धान्तिक-चर्चा के साथ-साथ हमने प्रस्तुत अध्याय में प्रायोगिक-चर्चा का भी पक्ष रखा है और यह बताया है कि जीवन में किन-किन सूत्रों का पालन करने से सामाजिक-प्रबन्धन सम्पूर्ण रूप से सम्पन्न हो सकता है। सामाजिक–प्रबन्धन एक सिद्धान्त ही नहीं, अपितु यह एक व्यावहारिक बात है। जैन-परम्परा में इस दृष्टि से श्रावक के पैंतीस मार्गानुसारी गुणों की चर्चा हुई है। अतः इस अध्याय के अन्त में हमने यह बताया है कि वे कौन-से प्रमुख बिन्दु हैं, जिनका पालन करके व्यक्ति समाज-प्रबन्धन को सफल बना सकता है। इस सम्बन्ध में प्रस्तुत अध्याय के अन्त में हमने लगभग छिहत्तर (76) बिन्दुओं वाली आदर्श नियमावली (Model) की चर्चा की है, जो सामाजिक-प्रबन्धन और सामाजिक-शान्ति का आधार बन सकती हैं। प्रस्तुत शोध-प्रबन्धन का दशम अध्याय अर्थ-प्रबन्धन से सम्बन्धित है, अतः इस अध्याय में अर्थ की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए अर्थ का जीवन में क्या महत्त्व एवं स्थान है, इसे स्पष्ट किया गया है। जैन जीवन-दृष्टि जीवन के लिए अर्थ के महत्त्व को स्वीकार करती है, किन्तु वह यह मानती है कि अर्थ जीवन जीने का एक साधन है। जब इस साधन को ही साध्य मान लिया जाता है, तब असन्तुलित, अव्यवस्थित एवं अमर्यादित अर्थनीति का विकास होता है और इसके दुष्परिणाम मानव जाति को भोगने पड़ते हैं। आज जो उपभोक्तावादी-संस्कृति का विकास हुआ है, वह इसी अर्थनीति का दुष्परिणाम है। जैनआचारमीमांसा में इस बात पर अधिक बल दिया गया है कि अर्थ एक साधन है, उसे कभी साध्य नहीं बनाना चाहिए, क्योंकि जब अर्थ साध्य हो जाता है, तो फिर धर्म और मोक्ष दोनों अर्थहीन हो जाते हैं। जैनआचारदर्शन में अर्थ-प्रबन्धन के लिए परिग्रह की मर्यादा की बात कही गई है और परिग्रह की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि परिग्रह दो प्रकार का होता है - अंतरंग एवं 755 अध्याय 14 : जीवन-प्रबन्धन : एक सारांश 11 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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