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________________ बहिरंग। वस्तुएँ बाह्य-परिग्रह हैं, किन्तु संचय की वृत्ति अंतरंग परिग्रह है। संचय की वृत्ति पर अंकुश लगाकर बाह्य-परिग्रह का सीमांकन करना ही जैनदष्टि से अर्थ-प्रबन्धन की एक प्रमख प्रक्रिया है। इसे जैनाचार्यों ने परिग्रहपरिमाण-व्रत की संज्ञा दी है। आगे, इसी अध्याय में हमने यह तो स्वीकार किया है कि आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अर्थ की आवश्यकता होती है, किन्तु व्यक्ति को यह निर्णय करना होता है कि वह आवश्यकताओं का सम्यक निर्धारण करके उनकी पूर्ति का सम्यक् प्रयत्न करे। जैनआचारमीमांसा इस बात पर बल देती है कि जीवन-संरक्षण की आवश्यकता तो है, किन्तु विलासितापूर्ण जीवन एक दुर्व्यवस्था है। उचित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संसाधनों का प्रयोग तो आवश्यक है, किन्तु इस सन्दर्भ में सीमांकन भी आवश्यक है और इसीलिए प्रस्तुत अध्याय में हमने ग्रहण-प्रबन्धन, सुरक्षा प्रबन्धन, उपभोग-प्रबन्धन और संग्रह-प्रबन्धन की बात कही है, क्योंकि अर्थ-प्रबन्धन का आधार ये तत्त्व ही हैं। व्यावहारिक रूप से अर्थ-प्रबन्धन का प्रायोगिक-पक्ष क्या है, इस सन्दर्भ में अर्थ-प्रबन्धन के पाँच सोपानों की चर्चा की है। ये पाँचों सोपान वस्तुतः आवश्यकताओं और इच्छाओं के क्रमशः सीमितीकरण पर आधारित हैं। जैनदर्शन की यह मान्यता रही है कि इच्छाएँ अनन्त हैं, अतः अर्थ के माध्यम से इच्छाओं की सम्पूर्ति कभी भी सम्भव नहीं है। इच्छाओं की अपेक्षा आवश्यकताएँ सीमित होती हैं और इनकी पूर्ति भी सम्भव है। अतः अर्थ-प्रबन्धन के लिए यह आवश्यक है कि हम आवश्यकताओं की सम्पूर्ति का प्रयत्न तो करें, किन्तु इच्छाओं के पीछे भागें नहीं। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का एकादश अध्याय भोगोपभोग-प्रबन्धन से सम्बन्धित है। जीवन जीने के लिए भोगोपभोग आवश्यक है, भोगोपभोग के अभाव में जीवन सम्भव नहीं है। अतः भोगोपभोग का जीवन में कितना महत्त्व है, यह समझना आवश्यक है। प्रस्तुत अध्याय में हमने इस बात को समझाने का प्रयत्न किया है और यह बताया है कि आवश्यकताओं की सम्पूर्ति तो आवश्यक है, पर इच्छाओं की सम्पूर्ति सम्भव नहीं। अतः हमें भोगोपभोग के सन्दर्भ में उपभोक्तावादी या भोगवादी जीवन-दृष्टि से बचना होगा। वर्तमान विश्व में जिस भोग-संस्कृति का विकास हुआ है, उसका आधार असन्तुलित, अव्यवस्थित एवं अमर्यादित भोगोपभोग की जीवनशैली है। यह जीवन की आवश्यकताओं पर आधारित न होकर इन्द्रियों की विषयाकांक्षाओं के आधार पर विकसित हुई है और इस उपभोक्तावादी संस्कृति के दुष्परिणाम आज समग्र मानवता भोग रही है। आज के व्यावसायिक-जगत् का सूत्र भी यही हो गया है कि 'अनावश्यक आवश्यकता बढ़ाओ, अपना माल खपाओ और मुनाफा कमाओ'। जैनआचारमीमांसा इस जीवन-दृष्टि का विशेष विरोध करती हुई एक मर्यादित भोगोपभोग की नीति को प्रस्तुत करती है। वह यह मानती है कि खाना आवश्यक है, किन्तु वह स्वाद के लिए नहीं, स्वास्थ्य के लिए होना चाहिए और विषय-वासनाओं के लिए नहीं, सम्यक् जीवन-प्रबन्धन के लिए होना चाहिए। प्रस्तुत अध्याय में हमने यह बताया है कि जीवन में भोगोपभोग का महत्त्व है, किन्तु जीने के लिए खाना या खाने के लिए जीना – इन दो विकल्पों में से मानव को एक विकल्प का चयन करना होगा। विश्व में आज जिस उपभोक्तावादी संस्कृति का विकास हुआ है, उसके फलस्वरूप असन्तुलित, अव्यवस्थित एवं अमर्यादित भोगोपभोग की वृद्धि हुई है, जिसके दुष्परिणामों को हम भोग रहे हैं। इसीलिए जैनआचारमीमांसा 12 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 756 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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