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________________ परिवेश साध्या साधक, साधन, साधना, साध्य एवं सिद्धि का सम्बन्धदर्शक रेखाचित्र उपर्युक्त चित्र से यह निष्कर्ष निकलता है कि - • साधक सर्वप्रथम प्रबन्धन का प्रयोग कर साध्य का निर्धारण करता है। • साधक फिर प्रबन्धन का प्रयोग कर साधन को ग्रहण करता है। • साधक अन्ततः प्रबन्धन का प्रयोग कर साध्य की सिद्धि करता है। स्पष्ट है कि साधना या प्रबन्धन के माध्यम से ही साध्य, साधक और साधन की एकता होती है, जिससे सिद्धि अर्थात् सफलता की प्राप्ति होती है। मूलतः प्रबन्धन वह प्रक्रिया है, जो बदलते हुए परिवेश में निर्धारित साध्य की प्राप्ति के लिए साधक, साधन तथा साध्य को एक सूत्र में पिरो देती है और इसके बिना साधक , साधन तथा साध्य का समन्वय असम्भव है। प्रबन्धन की यह भूमिका ही किसी भी कार्य में प्रबन्धन की अनिवार्य आवश्यकता को प्रदर्शित करने के लिए पर्याप्त है। अतः प्रत्येक मानव को चाहिए कि वह प्रबन्धन-प्रक्रिया को जाने, स्वीकारे एवं उसका सम्यक प्रयोग करके उपलब्ध साधनों की सहायता से सही लक्ष्य की सम्प्राप्ति करे। मेरी दृष्टि में, सार रूप में यह कहा जा सकता है कि - वह साधना, जिसके माध्यम से साधक परिवर्तनशील परिवेश में, साधनों का सम्यक् प्रयोग करता हुआ साध्य की सिद्धि करता है, प्रबन्धन कहलाती है। 28 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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