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________________ 1.4 जीवन- प्रबन्धन के सन्दर्भ में प्रबन्धन का मूल स्वरूप एवं जीवन में प्रबन्धन की उपयोगिता 'प्रबन्धन' शब्द की व्युत्पत्ति है 1.4.1 प्रबन्धन का सामान्य परिचय 'प्रकृष्टं बन्धनम् इति प्रबन्धनम्' । 'प्रकृष्ट' का अर्थ है सर्वोत्तम या श्रेष्ठ और 'बन्धन' का अर्थ है - जोड़ने या एकीकरण की प्रक्रिया, अतः सामान्यरूप से यह कहा जा सकता है कि एकीकरण या समन्वय की सर्वोत्तम प्रक्रिया ही प्रबन्धन है । प्रबन्धन की प्रक्रिया में मूलतः पाँच पक्षों का समावेश होता है - 1) साधना या प्रबन्धन (Management ) • वह कार्य - श्रृंखला या प्रक्रिया, जिसके माध्यम से लक्ष्य की प्राप्ति की जाती है, साधना या प्रबन्धन कहलाती है । 3) साध्य (Goal) 2) साधक या प्रबन्धक (Manager ) - वह व्यक्ति, जो लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होता है, साधक या प्रबन्धक कहलाता है (साधयति इति साधक : 114 ) । वह लक्ष्य या उद्देश्य, जिसे साधक (प्रबन्धक) प्राप्त करना चाहता है, साध्य कहलाता है (इष्टमबाधितमसिद्धं साध्यम् "5 ) । अंग्रेजी भाषा में इसे (Objective, Aim, Target) आदि भी कहते हैं। 115 -- 27 - 4) साधन (Means) - वह जैविक या भौतिक तत्त्व, जो लक्ष्य - प्राप्ति के लिए सहयोगी बनता है, साधन कहलाता है (साधनं कारणं 116 ) । Jain Education International 5) सिद्धि (Achievement of Goal) वह अवस्था, जिसमें साधक साध्य की प्राप्ति कर लेता है, सिद्धि या सफलता कहलाती है (सिध्यन्ति कृतार्था भवन्ति यस्यां सा सिद्धिः 117 ) । - अध्याय 1: जीवन- प्रबन्धन का पथ For Personal & Private Use Only 27 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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