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________________ है कि जीवन के सम्यक् विकास के लिए चारों अनुयोगों का महत्त्व है। इस प्रकार, जैनदर्शन कला, विज्ञान और वाणिज्य पर आधारित एक समन्वित जीवनशैली का पक्षधर है, जो जीवन - प्रबन्धन के लिए भी आवश्यक है। 93 (10) स्फूर्त्तिपरक और प्रमादपरक कुछ लोगों की मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियों में स्फूर्त्ति होती है, जबकि कुछ लोगों की प्रवृत्तियों में प्रमाद (असावधानी या आलस्य) झलकता है। जैनदर्शन में प्रमाद को सर्वथा त्यागने योग्य कहा गया है समयं मा पमायए । 2 इसमें प्रमाद को कर्म-बन्धन के पाँच हेतुओं में से एक माना गया है। ये पाँच हेतु हैं - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । यहाँ केवल बाह्य असावधानी को ही नहीं, अपितु एक क्षण के लिए भी आत्म-स्वरूप की विस्मृति होने को प्रमाद कहा गया है। आशय इतना है कि जैनदर्शन में व्यक्ति को जीवन के सम्यक् उद्देश्य की पूर्ति के लिए जाग्रत और प्रयत्नशील रखने वाली प्रमादरहित स्फूर्त्तिपरक जीवनशैली अपनाने का निर्देश दिया गया है, जो जीवन- प्रबन्धन की सफलता में अत्यन्त उपयोगी है। (11) आकांक्षापरक और सन्तोषपरक आकांक्षापरक व्यक्तियों की जीवनशैली में साधनों और सुविधाओं की लालसा का आधिक्य होता है। वे संग्रह-वृत्ति वाले तथा प्राप्त उपलब्धियों में सदा असन्तुष्ट और अप्राप्त के प्रति लालायित रहते हैं। इसके विपरीत, सन्तोषपरक जीवनशैली वाले व्यक्तियों में प्राप्त उपलब्धियों में सन्तुष्ट हो जाने की वृत्ति होती है। इनमें से कुछ विरल - विभूतियाँ ऐसी भी होती हैं, जो स्वयं को प्राप्त सामग्रियों में न केवल सन्तुष्ट हो जाती हैं, बल्कि अन्यों के लिए उनका संविभाग भी कर देती हैं। 95 जैन - साधना का सर्वोच्च आदर्श वीतराग अवस्था है, जिसमें कोई इच्छा शेष नहीं रहती, अतः स्पष्ट है कि जैनदर्शन आकांक्षापरक जीवनशैली का पक्षधर नहीं है। यहाँ सदैव इच्छाओं पर विजय प्राप्त करने का मार्गदर्शन दिया जाता है। कहा भी गया है कि इच्छाओं का निरोध करना ही सम्यक् तप है" और इस तप से आत्म-शुद्धि, आत्म-कल्याण और आत्म - शान्ति की प्राप्ति होती है। यहाँ गृहस्थ हो अथवा साधु दोनों को ही सन्तोष और निर्लोभतायुक्त जीवनशैली से जीने का उपदेश दिया गया है लोभं संतोसओ जिणे साधु को तो सिर्फ उदरपूर्ति जितना ग्रहण करने और गृहस्थ को भी आवश्यकतानुसार सीमित संग्रह करने का ही निर्देश दिया गया है। गृहस्थ के लिए जो बारहवां व्रत उपदिष्ट है, उसके अनुसार, उसे अपनी सामग्रियों में से एक उचित अंश का संविभाग सत्पुरूषों के लिए करना चाहिए ।" यहाँ तक भी कहा गया है कि असंविभागी का मोक्ष सम्भव नहीं है। 88 जैन साधु का यह कर्त्तव्य बताया गया है कि आहार लाने के पश्चात् वह प्रीतिपूर्वक आचार्य एवं अन्य साधुओं को अनुक्रम से निमंत्रण दे और प्रसन्नतापूर्वक उनके साथ आहार करे। यह पारस्परिक प्रेम और सन्तोष का आदर्श स्वरूप है। इसके अतिरिक्त 98 23 Jain Education International - - अध्याय 1: जीवन- प्रबन्धन का पथ For Personal & Private Use Only 23 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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