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________________ (12) फैशनपरक और सादगीपरक - फैशनपरक जीवनशैली वाला व्यक्ति लोकाचार का अन्धानुकरण कर अपने पहनावे, चाल-ढाल, खान-पान, आभूषण-विलेपन आदि से लोगों को आकर्षित करके प्रभावित करना चाहता है, लेकिन सादगीपरक जीवनशैली वाला व्यक्ति स्वाभाविक सौन्दर्य और सादगीयुक्त जीवन जीता है। जैनदर्शन सादगीपरक जीवनशैली को ही उचित मानता है, क्योंकि इसमें अल्पारम्भ और अल्पपरिग्रह होता है। इससे प्राणियों की सुरक्षा, समय की बर्बादी से बचाव, श्रमपूर्वक उपार्जित धन का मितव्यय और आत्महित सम्भव हो पाते हैं। इसके विपरीत, फैशनपरक जिन्दगी में प्रयुक्त कॉस्मेटिक्स, वस्त्र, फर्नीचर आदि साधन महँगे भी होते हैं, प्राणियों की हिंसा से निर्मित होते हैं, इनके भोगोपभोग में जीवन का अमूल्य समय नष्ट होता है और व्यक्ति की मनोवृत्ति में विकार एवं वासनाओं का जन्म होता है, अतः जैनदर्शन में इन्हें त्याज्य बताया गया है। वस्तुतः, सादगीपरक जीवनशैली से ही जीवन की असीम शक्तियों का सदुपयोग करने की सम्भावनाएँ उत्पन्न होती हैं, अतः यह जीवन-प्रबन्धन के लिए एक अनिवार्य आवश्यकता है। वस्तुतः, आवश्यकताओं की पूर्ति तो सम्भव है, किन्तु इच्छाओं और अपेक्षाओं की नहीं। 100 ये तो चित्त में विक्षोभ उत्पन्न कर तनाव को जन्म देती हैं, अतः जैनदर्शन में इन्हें सीमित करने का निर्देश दिया गया है। (13) सुनियोजित और अनियोजित - सुनियोजित (Planned) जीवनशैली में सुव्यवस्थित चिन्तन करके कार्य करने की नीति होती है, जबकि अनियोजित (Unplanned) जीवनशैली में चिन्तन, विचार अथवा नियोजन की ही उपेक्षा होती है। जैनदर्शन में सुनियोजित जीवनशैली को ही उचित माना गया है। इसके अनुसार, सम्यग्ज्ञान से ही सत्य-असत्य का विवेक और कृत्य-अकृत्य का निर्णय किया जा सकता है। ज्ञान के बिना किया गया आचरण परम-साध्य रूप मोक्ष की प्राप्ति नहीं करा सकता। 102 वस्तुतः, सम्यग्ज्ञान (Right Knowledge), सम्यग्दर्शन (Right Belief) और सम्यक्चारित्र (Right Character) की एकता ही मोक्ष-मार्ग है।103 इसमें भी चारित्र का मूल दर्शन है, तो दर्शन का मूल ज्ञान है।104 कहा जा सकता है कि सही जानने एवं सही मानने के साथ-साथ सही जीना ही जीवन-सफलता का सिद्धान्त है। अतः अनियोजित जीवनशैली अनुचित ही नहीं, वरन् मूर्खतापूर्ण भी है। (14) आवश्यकतापरक एवं अनावश्यकतापरक - आवश्यकतापरक जीवन-व्यवहार में व्यक्ति आवश्यक कार्यों को ही महत्त्व देता है और अनावश्यकतापरक में व्यक्ति निरर्थक कार्यों में ही अपने समय, संस्कार, सम्मान, समृद्धि और ऊर्जा का नाश कर डालता है। ___ जैनदर्शन का आशय यह है कि जीवन अल्प है और जंजाल अनेक हैं। 105 अतः अनावश्यक कार्यों में जीवन को नष्ट न कर विवेकपूर्वक सम्यक् लक्ष्य निर्धारण करके उसकी प्राप्ति हेतु योग्य कार्य ही करना चाहिए। जो कार्य अनावश्यक या निरर्थक होते हैं, उनका 'अनर्थ-दण्ड-परिमाण व्रत' के जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 24 स Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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