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________________ की निःसारता, तुच्छता और अनित्यता अनुभव में आने लगती है, परिणामस्वरूप अधिकारों की आकांक्षा शनैः-शनैः विलुप्त होती जाती है। इसी प्रकार आध्यात्मिक - विकास की प्रक्रिया में जब तक व्यक्ति समाज की परिधि में जीता है, तब तक निःस्वार्थ और निश्छल भाव से अपने कर्त्तव्यों का सम्यक् निर्वहन करने के लिए तत्पर रहता है। अन्ततः सर्वसंग का परित्याग कर केवल आत्म-कल्याण के पुनीत कर्त्तव्य में रत हो जाता है।T सम्यग्दृष्टि जीवड़ा, करे कुटुम्ब अन्तरसुं न्यारो रहे, ज्यों धाय खिलावे प्रतिपाल । बाल ।।' (8) आत्मप्रशंसापरक और आत्मप्रवीणतापरक अहंकार आदि की पुष्टि के लिए अपनी प्रतिभा, समृद्धि आदि उपलब्धियों को जैसी हैं वैसी अथवा बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करने की जीवनशैली आत्म-प्रशंसापरक या प्रदर्शनपरक होती है, जबकि प्रदर्शन के बजाय वास्तविक आत्म-निपुणता के विकास में विश्वास रखने की जीवनशैली आत्म-प्रवीणतापरक होती है। Jain Education International जहाँ तक जैनदर्शन का सवाल है, इसमें अंतरंग व्यक्तित्व - विकास को ही वास्तविक विकास माना गया है। इसका मानना है कि गुणों से ही पूज्यता प्रकट होती है। यहाँ अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु को उनके गुणों के आधार पर ही पूजनीय और वन्दनीय माना गया है। यह निर्देश भी दिया गया है कि गुणिजनों को देखकर कभी भी ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए, अपितु मन में प्रमोद या आनन्द उमड़ना चाहिए। 89 इससे विपरीत, प्रदर्शनात्मक जीवनशैली को मायापरक आचरण कहा गया है । इसे यश, कीर्त्ति, सम्मान, प्रसिद्धि अथवा लोभ की पूर्ति के लिए किया जाने वाला एक निन्दनीय आचरण माना गया है। यह भी स्पष्ट कहा गया है कि आत्म-प्रशंसा और पर - निन्दा से निम्न गोत्र की प्राप्ति होती है । " 88 - (9) कलापरक, वाणिज्यपरक और विज्ञानपरक कला पर आधारित जीवनशैली में कला-कौशल की निपुणता होती है, वाणिज्य पर आधारित जीवनशैली में लेखा-जोखा एवं लाभ-हानि का विश्लेषण करने की प्रवीणता होती है और विज्ञान पर आधारित जीवनशैली में निरीक्षण, विश्लेषण, परीक्षण तथा प्रयोग पर आधारित ज्ञान की विशिष्टता होती है। ये तीनों ही जीवनशैलियाँ सांसारिक एवं आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों में विकास के लिए सहयोगी होती हैं। ये जन्मजात भी होती हैं और उपार्जित भी । जैनदर्शन के साहित्य धार्मिक एवं आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से कला, विज्ञान और वाणिज्य की त्रिवेणी हैं। ये चार अनुयोगों - धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरण-करणानुयोग में विभाजित हैं।1 इनमें से चरण - करणानुयोग को कला, द्रव्यानुयोग को विज्ञान और गणितानुयोग को वाणिज्य कहा जा सकता है । अन्तिम अनुयोग है - धर्मकथानुयोग, जिसमें पूर्वोक्त तीनों अनुयोगों का सम्यक् समन्वय कर जीवन को आदर्श बनाने वाले महापुरूषों की कथाएँ हैं। जैनाचार्यों ने स्पष्ट कहा जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 22 22 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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