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________________ विकास करने में सक्षम और जीवन- प्रबन्धन के लिए आवश्यक है । ( 5 ) स्वाश्रित और पराश्रित जीवन जीने का वह तरीका, जिसमें व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्वयं पर आश्रित होता है, वह स्वाश्रित और जिसमें अन्यों, जैसे परिजन, पड़ोसी, मित्र आदि पर आश्रित होता है, वह पराश्रित जीवनशैली होती है । - जैनदर्शन स्वाश्रित जीवनशैली का पक्षधर है, लेकिन इसमें यह भी निर्देश कि यदि व्यक्ति अपरिपक्व, असंयमित एवं अज्ञ है, तो उसकी स्वाश्रित जीवनशैली कभी भी स्वच्छन्द जीवनशैली में परिवर्त्तित हो सकती है । व्यक्ति की स्वच्छन्दता, स्वयं और समाज दोनों के लिए घातक सिद्ध हो सकती है, अतः ऐसे व्यक्ति को योग्य निमित्तों के आश्रय से अपने व्यक्तित्व का विकास करना चाहिए । इस प्रकार, जैनदर्शन दोनों शैलियों में सामंजस्य स्थापित करता है । जीवन - प्रबन्धन के लिए व्यक्ति को विवेकपूर्वक स्वमूल्यांकन करके योग्य एवं लोचपूर्ण (Flexible) जीवनशैली को अपनाना चाहिए 182 ( 6 ) सेवा - प्रधान और स्वार्थ- प्रधान जीवन जीने का वह ढंग, जिसमें लोकहित का प्रयोजन मुख्य हो, वह सेवाप्रधान और जिसमें स्वहित की संकीर्ण मानसिकता हो, वह स्वार्थप्रधान जीवनशैली कहलाती है। - - - जैनदर्शन का इस विषय में गहन और व्यापक दृष्टिकोण है। इसके अनुसार, लौकिक उपलब्धियाँ, जैसे पद, पैसा, परिग्रह, प्रसिद्धि आदि तो पूर्वकृत कर्मों के परिणाम हैं, अतः इनकी लालसा में विचलित नहीं होना चाहिए। लौकिक स्वार्थ के वशीभूत होकर संकीर्ण, कलुषित और अनैतिक जीवन-व्यवहार नहीं करना चाहिए, अन्यथा ऐसा जीवन - व्यवहार नवीन पाप कर्मों के बन्ध का कारण बन जाता है। अतः व्यक्ति को चाहिए कि वह लौकिक उपलब्धियों के अभाव में भी सरल, सन्तुष्ट और अविचलित रहे । यदि कर्मवशात् उसके पास लौकिक साधनों का आधिक्य हो, तो वह स्वार्थी न बने, वरन् इनका उपयोग सेवा के क्षेत्र में वैयावृत्य ( आभ्यन्तर तप का एक प्रकार), दान ( चतुर्विध धर्म का एक प्रकार), संविभाजन (द्वादश व्रत में से एक) 85 आदि के रूप में करे। इससे व्यक्ति की स्वार्थवृत्ति पर उचित अंकुश लगेगा और सामाजिक सन्तुलन की अभिवृद्धि होगी, लेकिन यह अवस्था भी सिर्फ मध्यवर्ती सोपान है, अन्तिम साध्य नहीं । जैनदर्शन के अनुसार, व्यक्ति का परम - साध्य आध्यात्मिक विकास है, जिसमें लौकिक स्वार्थ और लौकिक सेवा से परे आत्महित ही सर्वोपरि होता है। 86 83 84 Jain Education International (7) कर्त्तव्यपरक और अधिकारपरक जीवन जीने की वह शैली, जिसमें उत्साहपूर्वक दायित्वनिर्वाह की मुख्यता हो, वह कर्त्तव्यपरक और जिसमें अप्राप्त अधिकारों की चाह एवं प्राप्त अधिकारों का अहंकार मुख्य हो, वह अधिकारपरक जीवनशैली होती है । जैनआचारमीमांसा का अनुयायी, अधिकारों की माँग करने के बजाय कर्त्तव्यों का निर्वहन करने को आवश्यक मानता है । जैसे-जैसे वह आध्यात्मिक साधना आगे बढ़ता है, वैसे-वैसे उसे अधिकारों अध्याय 1: जीवन- प्रबन्धन का पथ 21 For Personal & Private Use Only 21 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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