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________________ 13.2.1 साध्य का स्वरूप आध्यात्मिक जीवन में सर्वप्रथम साध्य का निर्धारण करना आवश्यक है। जैनदर्शन में इस साध्य को परमात्मपद के रूप में दर्शाया गया है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने इस पद का वर्णन करते हुए परमात्मा के तेईस विशेषण दिए हैं – 'शरीर-इन्द्रियादि से रहित, अचिन्त्य गुणों के समूह, सूक्ष्म, लोकाग्र में अवस्थित, जन्मादि संक्लेशों से रहित, प्रधान ज्योतिस्वरूप, अन्धकाररहित, सूर्य जैसे निर्मल , अक्षर, ब्रह्म, नित्य, प्रकृतिरहित. लोकालोक के प्रकाशक, समुद्र समान निस्तरंग, वर्णरहित, स्पर्शरहित, अगुरुलघु, सभी पीड़ाओं से रहित, परमानन्द सुख से युक्त, असंग, सभी कलाओं से परे, सदाशिव, आद्य आदि। 21 जैनदर्शन में मूलतः ‘परमात्मा' शब्द दो अर्थों का द्योतक है - प्रथम अर्थ में यह आत्मा के त्रैकालिक शुद्ध स्वरूप को इंगित करता है और दूसरे अर्थ में यह आत्मा की सर्वोच्च शुद्ध अवस्था को दर्शाता है। प्रथम अर्थ वस्तुतः आत्मा की मोहयुक्त मलिन अवस्था को गौण करके ज्ञानादि अनन्तगुणों के पिण्ड के रूप में आत्मद्रव्य को परिलक्षित करता है। इसकी दृष्टि में प्रत्येक आत्मा प्रत्येक अवस्था में शुद्ध चैतन्यमूर्ति है और उसमें लेशमात्र भी अशुद्धि नहीं है। जो कुछ अशुद्धियाँ हैं, वे संयोगी पदार्थों एवं उनके निमित्त से होने वाली अवस्थाओं में है, परन्तु त्रैकालिक शुद्ध स्वरूप तो इन सबसे निरपेक्ष ही है और सदाकाल निर्मल, निश्चल, निर्विकारी, एक, अखण्ड एवं शुद्ध सत्ता रूप में रहता है। जिस प्रकार लोहे का संग पाकर भी स्वर्ण का स्वर्णत्व ज्यों का त्यों बना रहता है, उसी प्रकार अनेक प्रकार के संयोग मिलने पर भी आत्मा का शुद्ध स्वरूप एक-सा बना रहता है। वह द्रव्यकर्म, भावकर्म एवं नोकर्म से सर्वथा रहित होता है यानि उसमें न अष्ट कर्मों (द्रव्यकर्म) की मलिनता का प्रवेश होता है, न राग-द्वेष आदि कलुषताओं (भावकर्म) का प्रभाव पड़ता है और न शरीर, परिजनादि बाह्य पदार्थों (नोकर्म) का तादात्म्य होता है। यह शुद्धात्म-स्वरूप महिमामय, पूर्णव्यक्त, अनुभवगोचर, निश्चल, शाश्वत् , कर्मकलंक रूपी कीचड़ से रहित , स्तुति करने योग्य साक्षात् परमात्मा (देव) है। जैनाचार्यों ने इस शुद्धात्म-स्वरूप की उपलब्धि को ही आध्यात्मिक साधना का परम साध्य बताया है। जब आत्मा शुद्धात्म-स्वरूप की अनुभूति करती है, तब विशुद्ध ज्ञाता-दृष्टा भाव या साक्षीभाव उत्पन्न होता है, जो आत्मा को निराकुल समाधि की अवस्था में स्थित कर दुःखों से मुक्त कर देता है। इस प्रकार आत्मा का साध्य आत्मा स्वयं है। जैनदर्शन में ‘परमात्मा' शब्द अपने द्वितीय अर्थ में अधिक प्रचलित है। यह वस्तुतः मूलस्वरूप को नहीं, अपितु मूलस्वरूप के आश्रय से निष्पन्न होने वाली आत्मा की परिपूर्ण शुद्ध अवस्था को इंगित करता है। इस अवस्था को 'मोक्ष' भी कहा जाता है। यह मोक्षपद या परमात्मपद आत्मा का परमसाध्य इसीलिए माना जाता है, क्योंकि यह वह अवस्था है, जिसमें सर्व विभाव (रागादि भाव) विनष्ट हो जाते हैं एवं अनन्त चतुष्टय – अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख एवं अनन्तवीर्य प्रकट हो जाते हैं। 703 अध्याय 13 : आध्यात्मिक-विकास-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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