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इस अवस्था के दो भेद हैं - 1) अरिहंत 2) सिद्ध । अरिहंत परमात्मा सशरीरी एवं सिद्ध परमात्मा अशरीरी होते हैं। ये अरिहन्त परमात्मा भी आयुष्यादि अघाती कर्मों का क्षय हो जाने पर सिद्ध परमात्मा बन जाते हैं। यद्यपि शरीर, कर्म आदि की अपेक्षा से इन दोनों में अन्तर होता है, तथापि अंतरंग स्वरूप की दृष्टि से इनमें कोई भेद नहीं होता। जब तक आत्मा सांसारिक मोह-माया के कारण कर्ममल से आच्छादित रहती है, तब तक वह बादलों से घिरे हुए सूर्य के समान होती है, किन्तु जब साधना (प्रबन्धन) के द्वारा इन कर्मों के आवरण को दूर कर देती है, तब यही आत्मा अनन्तानन्त आध्यात्मिक शक्तियों का पुंज बनकर शुद्ध , बुद्ध और मुक्त हो जाती है। इस प्रकार यह द्वितीय अर्थ आत्मपूर्णता अर्थात् आत्मा की सर्वोच्च अवस्था को आध्यात्मिक जीवन के साध्य के रूप में प्रकाशित करता है।
जब आत्मा पूर्वोक्त प्रथम अर्थ से निर्दिष्ट शुद्धात्म स्वरूप रूपी साध्य का समग्र आश्रय ले लेता है, तब ही आत्मा द्वितीय अर्थ से निर्दिष्ट सर्वोच्च आत्मदशा की प्राप्ति करता है। इस प्रकार दोनों साध्य पृथक्-पृथक् नहीं, अपितु परस्पर सम्बद्ध है। संक्षेप में कहें, तो दोनों का निष्कर्ष यही है कि आध्यात्मिक जीवन में आत्मा ही 'साध्य' है। 13.2.2 साधन का स्वरूप
आध्यात्मिक विकास को सिद्ध करने के लिए साधन या साधना-मार्ग का भी अपना वैशिष्ट्य है। इसके बिना साध्य की प्राप्ति असम्भव है। वस्तुतः, साधना मार्ग पर चलकर ही साध्य की प्राप्ति हो सकती है।
आध्यात्मिक विकास की दिशा में जिन साधनों का महत्त्व है, उनका वर्णन करते हुए तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र की एकता ही मोक्ष रूपी साध्य का साधना-मार्ग है। 26 इसी बात को समझाते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है – सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र एवं सम्यक्तप के मार्ग का अनुकरण करने वाली आत्मा मोक्ष रूपी साध्य की प्राप्ति करती है।" वस्तुतः, उत्तराध्ययनसूत्र में तप को चारित्र से पृथक् करके स्थान दिया गया है, इसका कारण यह है कि तप कर्मक्षय का विशिष्ट साधन है।
। यद्यपि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र एवं सम्यक्तप – ये मोक्ष-मार्ग के सहचारी साधन हैं, तथापि भेददृष्टि के द्वारा इनके कार्यों में विद्यमान अन्तर को समझा जा सकता है। पद्मनन्दि पंचविंशिका के अनुसार, आत्मा का निश्चय सम्यग्दर्शन है, आत्मा का बोध सम्यग्ज्ञान है और आत्मा में ही स्थिति सम्यक्चारित्र है।28 उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार, जीवादि पदार्थों को जानना सम्यग्ज्ञान है, उन पर श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, शुभाशुभ भावों का निरोध करना सम्यक्चारित्र है और विशेष शुद्धि का प्रयत्न करना सम्यक्तप है। भले ही जैनशास्त्रों में सम्यग्दर्शनादि साधनों एवं उनके कार्यों में भेद दर्शाया गया है, फिर भी परमार्थ से इन्हें अभेद ही माना गया है। केवल समझने के लिए भेद किया
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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