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________________ ★ बारह प्रकार का तप करना - 6 बाह्य तप 6 आभ्यन्तर तप 1) अनशन | 1) प्रायश्चित्त 2) ऊणोदरी | 2) विनय 3) वृत्ति-परिसंख्यान | 3) वैयावृत्य 4) रस-परित्याग 4) स्वाध्याय 5) काय-क्लेश 5) ध्यान 6) प्रतिसंलीनता |6) व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग) ★ परिषहों पर विजय प्राप्त करना13 - 1) क्षुधा 5) डांस 9) चर्या 13) वध 17) तृणस्पर्श 21) अज्ञान 2) पिपासा 6) अचेल (अवस्त्र) 10) निषद्या 14) याचना 18) मल 22) असम्यक्त्व 3) शीत 7) अरति 11) शय्या 15) अलाभ 19) सत्कार 4) उष्ण 8) स्त्री 12) आक्रोश 16) रोग 20) प्रज्ञा इस प्रकार, उपर्युक्त क्रम से आगे बढ़ता हुआ जीवन-प्रबन्धक नैतिक-आध्यात्मिक मूल्यों का जीवन-व्यवहार में उचित प्रयोग कर सकता है। उसके जीवन में क्षमा, सन्तोष, सरलता, विनम्रता, विनय, विवेक, धैर्य, सहिष्णुता आदि सद्गुणों का निरन्तर विकास होता चला जाता है। वह ऐसा कोई कार्य नहीं करता, जिससे दूसरों को पीड़ा हो। जिनशासन का सार भी यही है कि जो तुम अपने लिए चाहते हो, वही दूसरों के लिए भी करो, जो नहीं चाहते हो, वह दूसरों के लिए भी मत करो। 14 साधना-पथ पर बढ़ता हुआ वह विकट से विकट परिस्थितियों में भी समतापूर्वक जीने में दक्ष हो जाता है। जैनाचार्यों का भी यही सदुपदेश है कि भले ही कोई साथ दे अथवा न दे, लेकिन सद्धर्म का आचरण करना ही चाहिए,115 क्योंकि धर्म ही सभी प्रकार के सुखों का दाता है।116 689 अध्याय 12 : धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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