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________________ ★ सामाजिक जीवन का अस्त-व्यस्त होना जीवन में धार्मिक - व्यवहारों का सम्यक् प्रबन्धन न होने से व्यक्ति का व्यवहार स्वार्थपरक हो जाता है, जिससे वह अन्यों के साथ उचित व्यवहार भी नहीं कर पाता है। जीवन में क्रोध, मान, छल-कपट, विश्वासघात, ईर्ष्या आदि दोषों के कारण सम्बन्धों में दरारें आती रहती हैं और अक्सर क्लेश- कलह का वातावरण बना रहता है। ★ मानसिक अशान्ति होना यह मान्यता भ्रमपूर्ण है कि धर्म का वर्त्तमान से कोई सम्बन्ध नहीं है। वस्तुतः, धर्म तो नगद का सौदा है, जो तत्काल मानसिक शान्ति देता है, परन्तु जीवन में धर्म का सम्यक् प्रबन्धन न होने व्यक्ति आकुल-व्याकुल होता रहता है। कहा भी गया है। धर्म का फल तो उसी समय मिलता है, क्योंकि जैसे ही मोह टूटता है, तृष्णा छूटती है, चाह और चिन्ता कम हो जाती है, वैसे ही मन शान्ति और आनन्द भर जाता है, यही तो धर्म का फल है । " ,70 -- 71 चाह गई चिन्ता मिटी, मनुवा बेपरवाह | जिसको कछु न चाहिए, वह शाहन का शाह ।। ★ इहलौकिक दुःखों की प्राप्ति होना नैतिक एवं आध्यात्मिक सद्गुणों के अभाव में व्यक्ति की आत्म-नियन्त्रण की क्षमता समाप्त हो जाती है और वह अमर्यादित व्यवहार भी कर बैठता है । मानवता का ह्रास हो जाने से वह कई बार लोक - विरुद्ध कार्य कर लेता है, जिससे अर्थ-हानि, अपयश, अनादर, तिरस्कार, दण्ड आदि भी प्राप्त होते हैं। अतः स्पष्ट है कि जो सम्यक् धार्मिक-व्यवहार - प्रबन्धन करेगा, उसे कभी भी इन अवांछनीय स्थितियों का सामना नहीं करना पड़ेगा । - 671 — ★ पारलौकिक दुःखों की प्राप्ति होना जैनशास्त्रों में कहा गया है मनुष्य जन्म मूलधन के समान है और जीवात्मा व्यापारी के समान है। यदि जीवात्मा सम्यक् धर्ममय व्यवहार करे, तो उत्तरोत्तर स्वर्ग एवं मोक्ष के लाभ की प्राप्ति कर सकता है, किन्तु यदि वह अधर्ममय व्यापार (व्यवहार) करे, तो मूलधन को गवाँकर नरक और तिर्यच रूप दुर्गतियों को भी प्राप्त कर सकता है। आशय यह है कि अशुभ भावों से पाप कर्मों का बन्धन होता है, जो दुर्गतियों में ले जाकर कष्ट और पीड़ा देता है। 72 वस्तुतः यह धार्मिक व्यवहार का सम्यक् प्रबन्धन नहीं करने का दुष्परिणाम है। Jain Education International ★ जीवन के किसी भी क्षेत्र में सम्यक् विकास का न हो पाना व्यक्ति जीवन के शैक्षणिक, आर्थिक, राजनीतिक, आध्यात्मिक आदि प्रत्येक क्षेत्र में अपनी प्रगति चाहता है, किन्तु सम्यक् धार्मिक-व्यवहार- प्रबन्धन न होने से उसकी मानसिक एवं शारीरिक ऊर्जा का सही दिशा में नियोजन नहीं हो पाता। वह 'अनर्थदण्ड' (अप्रयोजनभूत क्रिया) में ही पुण्योदय से प्राप्त सामग्रियों का अपव्यय कर देता है, जिससे उचित जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो पाती और वह जीवन में सम्यक् प्रगति नहीं कर पाता । अध्याय 12: धार्मिक-व्यवहार- प्रबन्धन For Personal & Private Use Only - - 19 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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