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________________ 12.5.3 धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन, आखिर क्यों? यह प्रश्न उठ सकता है कि जीवन में धार्मिक व्यवहारों का प्रबन्धन करने की आखिर क्या आवश्यकता है? यदि हम इसे न करें, तो क्या अन्तर पड़ेगा? जैनदृष्टि से विचार करने पर यह तथ्य सामने आता है कि जिस प्रकार हमें व्यापारादि बाह्य क्रियाकलापों का प्रबन्धन आवश्यक लगता है, उसी प्रकार धार्मिक व्यवहारों का प्रबन्धन या सम्यक् नियोजन करना भी हमारे जीवन का एक आवश्यक कर्त्तव्य है और यदि हम ऐसा नहीं करते हैं, तो हमारे जीवन में नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों का ही अभाव हो जाएगा। जैनपरम्परा में तो यहाँ तक कहा गया है कि यदि हम सम्यक् प्रबन्धन के अभाव में धर्माचरण से रहित होकर जीवन-यापन करते हैं, तो हमारा जीवन निष्फल है और इसके विपरीत ! बिताया गया जीवन सफल हो जाता है।" आशय यह है कि सफलता का मापदण्ड अर्थ एवं भोग सम्बन्धी उपलब्धियाँ नहीं, अपितु धार्मिक व्यवहारों का सम्यक् विकास करना है। अतः यदि कोई चाहे कि मैं जीवन के आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक, शारीरिक आदि अन्य व्यवहारों को प्रबन्धित करके धार्मिक व्यवहारों का प्रबन्धन कर लूँगा, तो ऐसे जीवों को सावचेत करते हुए धर्मकृत्यों को प्राथमिकता देने के लिए कहा गया है। दशवैकालिक में स्पष्ट कहा है – 'जब तक बुढ़ापा नहीं आता, व्याधियाँ नहीं बढ़ती, इन्द्रियाँ शिथिल नहीं होती, तब तक सम्यक्तया धर्माचरण कर लेना चाहिए। 68 उत्तराध्ययनसूत्र के दसवें अध्याय में बारम्बार यह बताने का प्रयास किया गया है कि मनुष्य-जीवन नश्वर, दुर्लभ एवं कई प्रकार की बाधाओं से युक्त है, अतः धर्माराधन में एक क्षण का भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। जैनाचार्यों ने धार्मिक-व्यवहार–प्रबन्धन के लिए आत्म-जागृति बनाने पर जोर इसीलिए दिया है, क्योंकि यदि हम इनका प्रबन्धन नहीं करेंगे, तो इस जीवन में प्राप्त नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के विकास की योग्यता निष्फल हो जाएगी और इसके परिणामस्वरूप हम शुद्ध भावों से वंचित रहते हुए शुभ भावों से भी नीचे गिर जाएँगे, फिर हमारा जीवन-यापन एकमात्र अशुभ भावों में ही होगा। अशुभ भावों से संचालित होकर हमारा बाह्य व्यवहार भी अशुभ हो जाएगा, जिसमें केवल अर्थ एवं भोग की प्रधानता होगी। हमारे व्यवहार में हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह - इन पाँचों अधर्मों (पाप) का अनियंत्रित सेवन होगा। इस प्रकार, "यह मेरे पास है और यह मेरे पास नहीं है, यह मुझे करना है और यह मुझे नहीं करना है' – ऐसा अर्थ-भोग सम्बन्धी विचार करते-करते ही एक दिन कालरूपी चोर प्राणहरण कर लेगा। इस प्रकार से व्यतीत किए जाने वाले जीवन का जैनदृष्टि के आधार पर सम्यक् विश्लेषण एवं मूल्यांकन किया जाए, तो निम्नलिखित निष्कर्ष हमारे सामने आते हैं - 18 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 670 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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