SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 769
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इसका परिणाम यह होता है कि व्यक्ति स्वयं और समाज दोनों को छलता है। वह पुण्यशाली कहलाते हुए भी पापार्जन ही करता है। वह न उपासना-पद्धति के प्रति समर्पित होता है और न ही अंतरंग भावों को परिष्कृत कर पाता है। (6) लौकिक धर्म को ही लोकोत्तर धर्म माना जा रहा है - धर्म के दो प्रकार हैं – लौकिक एवं लोकोत्तर। 60 पहला व्यक्ति को सामाजिक जीवन या व्यावहारिक जीवन जीने की कला सिखाता है और दूसरा आध्यात्मिक जीवन अर्थात् मोक्ष–मार्ग पर चलने की कला सिखाता है। आज कुछ लोग केवल लौकिक धर्म को ही सम्पूर्ण मान रहे हैं। उनकी दृष्टि में केवल अल्प उपासना या मानवीय व्यवहार ही धर्म की इतिश्री है, इससे ऊपर जीवन का कोई साध्य नहीं। परिणाम यह निकलता है कि मानव से महामानव बनने की जो योग्यता प्राप्त हुई है, उसका सदुपयोग नहीं हो पाता। ऐसे व्यक्ति भले ही राष्ट्रीय, पारिवारिक, व्यावसायिक आदि बाह्य (लौकिक) कर्त्तव्यों का निर्वाह कर लें, लेकिन आत्मिक कर्त्तव्यों से वंचित रह जाते हैं। उनके भीतर क्षमा, मृदुता, सरलता, निर्लोभता आदि सद्गुणों का समुचित विकास नहीं हो पाता। वस्तुतः, साध्य की सीमितता से सद्गुणों की उपलब्धि भी सीमित हो जाती है। हम लौकिक धर्मानुयायी से उस गुणवत्ता के क्षमादि सद्गुणों की अपेक्षा नहीं कर सकते, जो लोकोत्तर सत्पुरूषों में होते हैं। (7) एकांगी धर्म को ही सर्वांगीण माना जा रहा है - धर्म तभी सफल है, जब उसमें सर्वांगीणता हो। वर्तमान युग की विडम्बना यह है कि धर्मानुयायियों की संख्या तो बढ़ रही है, किन्तु इनमें से अधिकांश धर्म के किसी एक पहलू को ही पकड़कर बैठे हुए हैं। श्रीमद्राजचंद्र कहते हैं कि कोई क्रिया-जड़ होकर केवल बाह्य कर्म-काण्ड में अनुरक्त है, तो कोई शुष्क-ज्ञानी होकर अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन करता है। वस्तुतः धर्म के निकट पहुँचकर भी सर्वांगीणता के अभाव में भावात्मक सुधार न हो पाने से ज्ञानियों को इन्हें देखकर करुणा आती है। सोचा जा सकता है कि यदि कोई जप-तप, माला-पाठ, प्रतिक्रमणादि क्रियाओं को यन्त्र के समान करता रहे और उसके जीवन में अहिंसा, अनाग्रह एवं अपरिग्रह की वृत्ति न हो, तो क्या इसे धर्म कहा जाए? कार्यों को तोता-रटन के समान करता रहे और उसके जीवन में मैत्री, प्रमोद, करुणा एवं माध्यस्थ भावना न हो, तो क्या उसे धर्म कहा जाए? उत्तर स्पष्ट है कि इन्हें धर्म नहीं कहा जा सकता। धर्म न होने पर भी आज एकांगी धर्म साधना का ही बोलबाला है। इसका परिणाम यह है कि अपने समय, सामर्थ्य एवं संसाधनों का प्रयोग करके भी व्यक्ति धर्म का यथोचित लाभ नहीं ले पा रहा है, वह उस अन्धे या लंगड़े व्यक्ति के समान है, जो चाहता हुआ भी अपने गन्तव्य तक नहीं पहुँच सकता। 667 अध्याय 12 : धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy