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________________ बहलाने के लिए जाता है। कई लोग तो तीर्थों या गुरुजनों के दर्शनार्थ जाते हुए भी रास्ते में ताश खेलते हैं, म्युजिक सुनते हैं और धर्मशालाओं आदि के शुद्ध भोजन को छोड़कर होटल एवं हाथ-ठेलों में बनी अशुद्ध वस्तुओं को चाव से खाते हैं आदि-आदि। परिणाम यह है कि इन्हें धर्म का वास्तविक लाभ नहीं मिल पाता। जो धर्म आत्मिक-शान्ति का साधन है, वही धर्म फुरसत के क्षणों में सस्ता मनोरंजन करने का साधन बन जाता है। पुण्य कर्म के बजाए पाप कर्मों को संचित करने का माध्यम बन जाता है। जैनशास्त्रों में इन पापों की प्रगाढ़ता के बारे में चेतावनी देते हुए कहा गया है - अन्य स्थाने कृतं पापं, धर्मस्थाने विमुच्यते। धर्मस्थाने कृतं पापं, वज्रलेपो भविष्यति।। अर्थात् दूसरे स्थानों पर किया गया पाप तो धर्मस्थानों पर दूर हो सकता है, परतु धर्मस्थानों पर जिस पाप का सेवन किया जाता है, उससे छुटकारा पाना अत्यन्त कठिन है, वह तो वज के लेप के समान दृढ़ हो जाता है। (4) आज धर्म को व्यावसायिक दृष्टि से देखा जा रहा है - वर्तमान युग में व्यक्ति का नजरिया पूरी तरह व्यावसायिक (Professional) हो गया है। वह हर समय अपने भौतिक-लाभ के अवसर खोजता रहता है। धर्म को भी वह आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक आदि क्षेत्रों में अपनी उन्नति के लिए अपनाता है। वह यह मानता है कि धर्म करने से मुझे पद, पैसा, प्रतिष्ठा, यश-कीर्ति आदि सब कुछ मिल जाएगा। यही कारण है कि वह नौकरी, विवाह, पुत्र-प्राप्ति, अर्थलाभ आदि के लिए जप-तपादि करता है और मनोरथ की पूर्ति होने पर दानादि करने का संकल्प भी करता है। यद्यपि वह इसे धर्म मानता है, परन्तु वास्तव में यह धर्म नहीं व्यापार है। इसे जैनाचार्यों ने अज्ञान-क्रिया कहा है, जिसका परिणाम यह होता है कि व्यक्ति धर्म के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नति कर पाने से वंचित रह जाता है। प्रत्युत अन्धविश्वास एवं अन्धरूढ़ियों का पोषण कर मिथ्यात्व को मजबूत करता रहता है। (5) धर्म को सामाजिक एवं राजनीतिक प्रतिष्ठा की प्राप्ति का माध्यम माना जा रहा है - ____ मान-सम्मान की भूख वर्तमान युग में सर्वत्र बढ़ती जा रही है। इसे मिटाने के लिए व्यक्ति धर्म से भी जुड़ता है। वह धर्म के बहाने समाज के सदस्यों के साथ सम्पर्क एवं सम्बन्ध बनाता है। पहले कार्यकर्ता के रूप में अपनी सामाजिक पहचान बनाता है और फिर अधिक यश-कीर्ति पाने हेतु विशेष दानादि देकर अपने नाम की तख्ती लगवाता है। धर्म-क्षेत्रों में अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए जोड़-तोड़ करता है एवं न्यासी, अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव आदि पदों की प्राप्ति हेतु दौड़-धूप करता है। इस प्रकार वह धर्म नहीं करते हुए भी राजनीतिक लाभ उठाने के लिए धर्म करने का दिखावा करता है। 14 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 666 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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