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________________ (8) अक्रमिक विकास को ही धर्म माना जा रहा है - प्रबन्धन का महत्त्वपूर्ण सूत्र है - कार्य में क्रमबद्धता का होना। सफलता तभी मिलती है, जब हम कार्य को क्रमबद्ध ढंग से सम्पादित करते हैं। यही नियम धार्मिक-विकास के लिए भी लागू होता है। जैनधर्मदर्शन में इस हेतु गुणस्थान सिद्धान्त निर्दिष्ट है, जिसमें स्पष्टतया बताया गया है कि किस व्यक्ति को किस भूमिका में, किस प्रकार का धार्मिक व्यवहार करना योग्य है। इसी आधार पर स्थूल रूप से धर्म को दो प्रमुख भागों में बाँटा गया है – गृहस्थधर्म एवं मुनिधर्म । वर्तमान युग की यह विडम्बना है कि धर्माभिलाषीजन इस क्रमिक व्यवस्था का ही अपलाप करने में लगे हैं। वे कभी अपनी भूमिका से नीचे आकर, तो कभी ऊँची छलांग लगाकर धर्मकृत्य कर रहे हैं। उदाहरणार्थ, कोई गृहस्थ भावावेश में आकर मासक्षमण (एक मास का उपवास) कर लेता है, तो वही गृहस्थ बाद में तम्बाकू सेवन की वृत्ति का त्याग नहीं कर पाता। इसी प्रकार कोई श्राविका प्रतिदिन प्रतिक्रमण (दोष त्यागने की क्रिया) तो करती है, लेकिन छोटी-छोटी घटनाओं से विचलित हो जाती है इत्यादि। इसका दुष्परिणाम यह है कि व्यक्ति का अंतरंग (भावात्मक) धार्मिक विकास व्यवस्थित ढंग से नहीं हो रहा है। अनियोजित एवं अक्रमिक पुरूषार्थ करने से वह लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर पा रहा है। जैनकथानकों में पंद्रह सौ तापसों का वर्णन मिलता है, जिन्होंने बोधि (सम्यग्ज्ञान) प्राप्ति के बिना ही कठोर साधना करते हुए स्वयं को दुर्बल एवं कृशकाय कर डाला, परन्तु साधना की सिद्धि नहीं हो सकी। जब उन्हें गुरु गौतमस्वामी का समागम एवं प्रतिबोध प्राप्त हुआ, तो अल्पकाल में ही सिद्धि प्राप्त हो गई। आचार्य कुन्दकुन्द ने भी कहा है – अज्ञानपूर्वक (अक्रमिक) किए जाने वाले बाल-तप से लाखों-करोड़ों जन्मों में जितने कर्म खपते हैं, उतने कर्म ज्ञानपूर्वक साधना करने से श्वासमात्र में खप जाते हैं। अतएव अक्रमिक धार्मिक विकास का प्रयास भी अनियोजित जीवनशैली का परिचायक है। ___ इस प्रकार, उपर्युक्त सभी तथा विस्तार-भय से अकथित अन्य कई विसंगतियों को सुधारना जीवन-प्रबन्धक का एक आवश्यक कर्त्तव्य बन जाता है। इस हेतु जैनदृष्टि के आधार पर आगे चर्चा की जा रही है। ===== ===== 16 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 668 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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