SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 763
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 12.3 धर्म और जीवन मूल्य मानवीय जीवन में जो भी उपयोगी है, उन्हें पाश्चात्य - दर्शन में मूल्य (Values) कहा जाता है, जैसे धन, मनोरंजन, सौन्दर्य, कला, ज्ञान आदि । भारतीय-दर्शन में प्रकारान्तर से इन्हें इष्ट, प्रयोजन, श्रेय, पुरूषार्थ आदि कहा जाता है, फिर भी 'पुरुषार्थ' शब्द सर्वाधिक लोकप्रिय है । 16 प्रश्न उठता है कि भोजन, मकान, धन, शरीर आदि के समान क्या धर्म भी एक जीवन - मूल्य है ? इस सन्दर्भ में हमारे समक्ष तीन दृष्टियाँ हैं 1) भौतिक, 2) नैतिक एवं 3) आध्यात्मिक । चूँकि मूल्य मनुष्य के द्वारा आरोपित (निर्धारित किए जाते हैं, अतः मत - विभिन्नता के कारण एक ही पदार्थ का मूल्यांकन अलग-अलग ढंग से होता है। यही कारण है कि धर्म- मूल्य के बारे में विविध मान्यताएँ प्रचलित हैं। (1) भौतिक दृष्टि भौतिक विचारधारा जीवन में अर्थ एवं भोग के महत्त्व को तो मानती है, किन्तु धर्म और मोक्ष से इसका कोई सरोकार नहीं है। अतः इसकी दृष्टि में धर्म मूल्य नहीं है, परन्तु जैसा कि हमने पूर्व में इंगित किया है कि जीवन के सभी पहलुओं – आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, सामाजिक आदि में धर्म का अपना विशिष्ट महत्त्व है, अतः यह मान्यता उचित प्रतीत नहीं होती कि केवल अर्थ और भोग में ही जीवन को बिता दिया जाए। हमें ईसा मसीह का यह वाक्य स्मरण रखना होगा कि Man can not live by bread alone| रोटी पेट की क्षुधा तो शान्त कर सकती है, लेकिन हमारे मानस की नहीं, उसे कुछ और भी चाहिए, जो मानस की क्षुधा को मिटा सके। 17 वस्तुतः अर्थ और भोग हमें सुविधा और विलासिता तो दे सकते हैं, किन्तु मन की सन्तुष्टि नहीं । - (2) नैतिक दृष्टि नैतिक विचारधारा भारतीय संस्कृति की त्रिवर्गवादी विचारधारा है। यह धर्म, अर्थ और काम तीनों को ही मूल्य मानती है। इसकी दृष्टि में 'धर्म' के अन्तर्गत सभी नैतिकमूल्य, 'अर्थ' के अन्तर्गत आर्थिक और राजनीतिक मूल्य तथा 'काम' के अन्तर्गत सभी मनोवैज्ञानिक मूल्यों का समावेश हो जाता है 148 यद्यपि भारतीय चिन्तन में मूल्यों का वर्गीकरण अवश्य किया गया है, लेकिन मूल्यों को स्वतन्त्र नहीं बनाया गया और न ही इनके अमर्यादित सेवन की स्वीकृति दी गई। वस्तुतः, इसमें धर्म को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है और साध्य की भूमिका में स्थापित किया गया है। अर्थ और काम को भी तभी मूल्य माना गया जब ये धर्म के द्वारा नियंत्रित एवं मर्यादित हों । धर्म विरुद्ध अर्थ और काम को पूर्णतया असेवनीय और आत्म-विनाशक माना गया है। अर्थ और भोग को इस प्रकार मूल्य की श्रेणी में लाने का श्रेय धर्म को दिया गया है। 49 आचार्य हरिभद्र ने भी गृहस्थ जीवन हेतु इन तीनों जीवन-मूल्यों को परस्पर विरोध के बिना सेवन करने का निर्देश दिया है एवं धर्म को किसी भी अध्याय 12: धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन 661 Jain Education International For Personal & Private Use Only 9 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy