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________________ प्रत्येक सदस्य अपने-अपने कर्त्तव्यों (धर्म) के प्रति सजग तथा अधिकारों के प्रति सहज (लोचपूर्ण) रहता है। स्वयं धर्मकृत्यों में रत रहता हुआ दूसरों को भी सत्प्रेरणा देता है । उपासकदशांगसूत्र में पत्नी (उपलक्षण से सभी) के बारे में कहा गया है कि वह धर्म में सहायता करने वाली, धर्म में साथ देने वाली, धर्मानुरागी तथा परिवार के सुख-दुःख को समान रूप से बाँटने वाली होती है। 43 इस प्रकार, धर्म के नैतिक मूल्य परिवार की सुव्यवस्था के लिए भी अत्यावश्यक हैं। (8) राजनीतिक दृष्टि से धर्म का महत्त्व यद्यपि आज राजनीति को धर्म-निरपेक्ष बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है, परन्तु इसके बजाय संप्रदाय -निरपेक्ष अथवा पन्थ - निरपेक्ष शब्दों का प्रयोग ज्यादा उचित है। वस्तुतः, यदि राजनीति को धर्मविहीन कर दिया जाए, तो राज्य व्यवस्था ही चरमरा जाएगी। महात्मा गाँधी का भी यह विचार रहा है कि 'धर्म से अलग कोई राजनीति नहीं है। 44 यदि धर्म (नैतिकता) को आत्मसात् करके राजनीति की जाए, तो इसमें व्याप्त बुराइयाँ निश्चित तौर पर समाप्त हो सकती हैं। उस स्थिति में पद, प्रतिष्ठा एवं पैसा मूल्यहीन जाएगा और राष्ट्रीय उन्नति प्रमुख हो जाएगी। प्रत्येक राजनीतिज्ञ स्वार्थ एवं सत्ता का परित्याग करके जनता की सेवा एवं सहयोग के लिए तत्पर हो जाएगा । स्थानांगसूत्र में इसी चेतना को जाग्रत करने हेतु ग्रामादि दशविध धर्म बता गए हैं (विशेष विवरण के लिए देखें - अध्याय 9 ) । ** 45 -- इस प्रकार, धर्म केवल पारलौकिक जीवन को ही नहीं, अपितु ऐहलौकिक जीवन को भी उन्नत बनाता है। धर्म को अपनाकर ही व्यक्ति का व्यक्तित्व परिष्कृत होता है, अतएव जीवन में धर्म के महत्त्व को अवश्य स्वीकार करना चाहिए, जिससे धर्म का उपयोग जीवन के प्रबन्धन हेतु किया जा सके। परन्तु इस लक्ष्य को साकार करने के लिए हमें अपने धार्मिक व्यवहारों को सुनियोजित करना होगा, केवल धर्म के नाम पर कुछ क्रियाकाण्ड कर लेना अपने आपको छलने से अधिक कुछ नहीं है। 8 Jain Education International जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व For Personal & Private Use Only 660 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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