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________________ संसाधनों की सुरक्षा हो जाती है और परोक्ष रूप से मानव-अस्तित्व भी बना रहता है। यदि धर्म न हो, तो मनुष्य और पर्यावरण के मध्य का सन्तुलन ही भंग हो जाए, क्योंकि अनियंत्रित मनुष्य सदा ही पर्यावरण पर अपना एकाधिकार जमाने का प्रयत्न करता रहा है। आचारांगसूत्र में पृथ्वीकाय आदि षड्जीवनिकायों की रक्षा रूप अहिंसा को धर्म के रूप में प्रतिपादित करके भौतिक-पर्यावरण की सुरक्षा को सुनिश्चित किया गया है। धर्म को परिभाषित करते हुए बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि भूत, वर्त्तमान एवं भविष्य के सभी अर्हत् एक ही सन्देश देते हैं कि किसी भी जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिए, उसे पीड़ा नहीं पहुँचानी चाहिए, यही एकमात्र शुद्ध , नित्य एवं शाश्वत् धर्म है।" (6) सामाजिक दृष्टि से धर्म का महत्त्व – 'धर्म' शब्द, जिसे अंग्रेजी में Religion (रिलीज़न) कहा जाता है, की व्युत्पत्ति हमें यह बताती है कि धर्म एक योजक तत्त्व है, जो हमें जोड़ता है। 'रिलीजन' शब्द रि + लीजेर से बना है, जिसका अर्थ होता है – पुनः जोड़ने वाला। इस प्रकार 'रिलीजन' एकता और सामंजस्य का सूचक है तथा यही सामाजिक संगठन के लिए आवश्यक है। जैनधर्म मूलतः निवृत्तिपरक है, फिर भी उसे संघीय धर्म के रूप में स्थापित किया गया है। इसमें निर्दिष्ट धर्म साधना में दूसरों के हित का भी ध्यान रखा गया है। तत्त्वार्थसूत्र में एक-दूसरे के परस्पर हित साधने को जीवों का दायित्व बताया गया है। यहाँ जीवन की व्याख्या 'अस्तित्व के लिए संघर्ष' (Struggle for the Existence) के रूप में नहीं की गई है। जैनाचार्यों का यह मानना है कि अस्तित्व का संरक्षण संघर्ष से नहीं, अपितु पारस्परिक सहयोग से ही सम्भव है (The law of life is the law of cooperation) और इसीलिए यहाँ संरक्षण, सहयोग और सेवा की वृत्ति को धर्म कहा गया है। मनुष्य का मूल दायित्व परमात्मा की उपासना के साथ-साथ प्राणीमात्र की सेवा करना भी है। जैनाचार्यों के अनुसार, धर्म और सदाचार एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं। यह ठीक है कि मनुष्य को समाज में जीना होता है, लेकिन अनीतिपूर्वक जीवन जीने का प्रयास वस्तुतः व्यक्ति और समाज के बीच के सम्बन्ध को बिगाड़ देता है। अतः यदि सदाचारपरक जीवन हो, तो समाज में सहज ही समरसता बन सकती है। आज जो सदाचारविहीन संस्कृति फैल रही है, इससे ही सामाजिक-व्यवस्था दूषित हो रही है। सार रूप में, सदाचारपरक जीवनशैली को प्रोत्साहित कर धर्म सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने में अहम योगदान देता है। इसीलिए कहा गया है - 'धर्मो धारयते प्रजाः' अर्थात् जो प्रजा (समाज) को धारण करता है, वह धर्म है। (7) पारिवारिक दृष्टि से धर्म का महत्त्व - जिस प्रकार से सामाजिक संगठन की दृष्टि से धर्म का महत्त्व है, उसी प्रकार से उसका महत्त्व पारिवारिक संगठन के लिए भी है। स्थानांगसूत्र में धर्म के चार द्वार बताए गए हैं - क्षमा, सन्तोष, सरलता और नम्रता। 42 ये सद्गुण जिस परिवार में विद्यमान हों, उसमें स्वार्थ, घृणा, क्लेश-कलह आदि व्यवहार कभी नहीं हो सकते। ऐसे परिवार में अध्याय 12 : धार्मिक-व्यवहार-प्रबन्धन 659 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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