SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 764
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिस्थिति में त्यागने योग्य नहीं मानना है।50 जीवन-प्रबन्धन की दृष्टि से यह नैतिकता सामाजिक जीवन में अत्यावश्यक है। यदि हम धर्म-मूल्य को अस्वीकार करेंगे, तो सदाचार का लोप हो जाएगा और सदाचार के बिना सामाजिक व्यवस्था चरमरा जाएगी, अतः त्रिवर्गवादी विचारधारा धर्म के जिस नैतिक पक्ष पर बल देती है, उसी के अनुरूप हमें जीवन में धर्म को अपनाना होगा और धर्मानुकूल अर्थोपार्जन एवं भोगोपभोग करना होगा। यदि हम धर्म को केवल बाह्य आडम्बर के रूप में करते रहेंगे, तो भी उससे लाभ नहीं होगा, क्योंकि वह तथाकथित धर्म भी अर्थ और भोग को नियंत्रित एवं सामाजिक-व्यवस्था को सुव्यवस्थित नहीं कर सकेगा। पाश्चात्य विचारक ब्रेडले ने भी अपनी पुस्तक Ethical Study में इस सत्य को स्वीकार किया है कि नीतिविहीन धर्म, धर्म नहीं है और धर्मविहीन नीति, नीति नहीं है। जैनाचार्यों ने भी इसीलिए धर्म को भावप्रधान बताया है। उनके अनुसार, अशुभ भावों से निवृत्ति और शुभ भावों में प्रवृत्ति धर्म (व्यवहार धर्म) है। इस प्रकार, त्रिवर्गवादी विचारधारा धर्म को जीवन का सर्वोच्च-मूल्य मानती है और इससे ही व्यावहारिक-जीवन का प्रबन्धन करने का निर्देश भी देती है। (3) आध्यात्मिक-दृष्टि __ आध्यात्मिक विचारधारा भारतीय संस्कृति की चतुर्वर्गीय विचारधारा है, जिसमें धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष - इन चारों पुरूषार्थों को जीवन-मूल्य के रूप में स्वीकारा गया है। इसकी दृष्टि में धर्म यदि नैतिक-मूल्य है, तो मोक्ष आध्यात्मिक-मूल्य है। दोनों में अन्तर यह है कि धर्म के द्वारा सामाजिक-जीवन सुचारु रूप से चलता है, तो मोक्ष के द्वारा व्यक्ति अपनी आत्मिक शक्तियों का अनावरण/शुद्धिकरण कर आध्यात्मिक-जीवन को सुप्रबन्धित करता है। अन्तर के साथ-साथ दोनों में परस्पर सम्बन्ध भी है। वस्तुतः, धर्म यदि साधन के रूप में प्रयोग किया जाए, तो यह व्यक्ति को आध्यात्मिक पूर्णता की दिशा में ले जाता है, जिस पर चलकर व्यक्ति अन्ततः मोक्ष रूपी साध्य की प्राप्ति करता है। ___ जैनदर्शन भी मूलतः आध्यात्मिक-विचारधारा पर आधारित है। यहाँ मोक्ष-पुरूषार्थ को ही उत्तम माना गया है, क्योंकि उसके बिना धर्म, अर्थ और काम से भी ‘परमसुख' की प्राप्ति सम्भव नहीं है। धर्म का स्थान अर्थ और काम की तुलना में तो उच्च स्वीकार किया गया है, किन्तु मोक्ष की दृष्टि से यह भी एक साधन ही है। अन्तर इतना है कि जहाँ त्रिवर्गवादी विचारधारा में धर्म को साध्य के रूप में स्वीकार किया गया है, वहीं पुरूषार्थ-चतुष्टय वाली जैन-विचारधारा में धर्म को एक साधन के रूप में ही देखा गया है। कहा जा सकता है कि जैनदर्शन में मुख्यतः दो मूल्यों पर विशेष बल दिया गया है - धर्म और मोक्ष। मोक्ष परम मूल्य है और धर्म मोक्ष का राजमार्ग है। धर्म का यह रूप वस्तुतः अशुभ से शुभ नहीं, अपितु शुभ से शुद्ध (साक्षीभाव) की ओर प्रवर्तन का प्रतीक है। दूसरे शब्दों में, यह 10 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 662 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy