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________________ 1. 3 जीवन - प्रबन्धन के सन्दर्भ में जीवन की विविध शैलियाँ 1.3.1 जीवनशैली का अर्थ एवं अवधारणा जीवनशैली का शाब्दिक अर्थ है जीने की शैली (The way of living) । संस्कृत भाषा में 'शैली' शब्द की उत्पत्ति 'शील' शब्द में 'ष्यञ्' और 'ङीप्' प्रत्यय जुड़ने और यकार का लोप होने से हुई है, जिसका अर्थ है - प्रकृति, स्वभाव, चरित्र, आदत, व्यवहार, काम करने का ढंग इत्यादि । ” इस प्रकार, जीवनशैली को जीवन - व्यवहार, जीवन-आदत, जीवन-स्वभाव, जीवन - आचरण अथवा जीवन -ढंग भी कहा जा सकता है। 'जीवनशैली' (Lifestyle ) एक प्रचलित शब्द है, जिसका प्रयोग अपने-अपने अभिप्राय से सभी करते हैं, जैसे – कोई सिर्फ पहनावे के तरीके को कोई खान-पान सम्बन्धी आदतों को, कोई घर की सजावट को, तो कोई बोलने-सुनने की कला को ही जीवनशैली का मापदण्ड मानता है, लेकिन यह उचित नहीं है। जीवनशैली का सम्बन्ध किसी एक व्यवहार से नहीं, अपितु जीवन के समस्त व्यवहारों से है। वस्तुतः, इस बदलते हुए परिवेश में जीवनशैली के अन्तर्गत हमारा रहन-सहन, खान-पान, पहनना – ओढ़ना, सजना -धजना, बोलना-सुनना, सोचना-विचारना, श्रम - विश्राम आदि से सम्बन्धित सम्पूर्ण गतिविधियाँ शामिल हो जाती हैं। इसमें हमारे जीवन के धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष रूप बहिरंग और अंतरंग दोनों ही पक्षों का समावेश हो जाता है। आशय यही है कि जीवनशैली हमारे जीवन जीने का तरीका है और यह जीवन की समग्र एवं वास्तविक तस्वीर है । भले ही जीवन की प्राप्ति और उसकी समयावधि हमारे हाथ में नहीं है, लेकिन जीवनशैली पर हमारा पूरा अधिकार है। हम जीवनशैली को सुधार भी सकते हैं और बिगाड़ भी । यह हमारी रुचि और अभ्यास पर निर्भर करता है कि हम अपनी जीवनशैली को कौन-सी दिशा प्रदान करें? एरिस्टोटल ने कहा भी है हम जैसा बारम्बार करते हैं, वैसा ही बन जाते हैं (We are what we repeatedly do) 178 - जैन आचारशास्त्रों में जीवनशैली को सम्यक् दिशा में नियोजित और प्रवर्त्तित करने के लिए सम्यक् मार्गदर्शन दिया गया है, जिसके आधार पर हम अपनी जीवनशैली का सम्यक् विकास कर सकते हैं, यही जीवन - प्रबन्धन का मूल उद्देश्य है। 1.3.2 जीवन की विविध शैलियाँ जीवन - प्रबन्धन का लक्ष्य है मानवीय विकास। मानव में ही विकास की असीम सम्भावनाएँ छिपी हुई हैं। मानवीय - जीवन संसार की एक सर्वोत्कृष्ट रचना है। इसका अर्थ सिर्फ जन्म और मृत्यु के बीच की विवशता नहीं है, यह जीवन तो सम्यक् उत्थान, उन्नति और उत्कर्ष की प्राप्ति का अमूल्य अवसर है। इसमें जहाँ शारीरिक क्षमताओं के विकास की सम्भावनाएँ हैं, वहीं आत्मिक - शक्तियों के विकास की भी । यह अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है कि मानव में अन्य समस्त प्राणियों की तुलना में अपनी जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 18 Jain Education International For Personal & Private Use Only 18 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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