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________________ अंतरंग परिग्रह के पाँच कारणों का उल्लेख भी किया है – मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय एवं योग। इन अंतरंग परिग्रह के कारणों से उत्पन्न होने वाली इच्छाओं को क्रमशः पाँच जातियों में विभक्त किया जा सकता है - असीम, ससीम, अल्प , अल्पतम एवं शून्य । अर्थ-प्रबन्धक का यह कर्त्तव्य है कि वह इन पाँच श्रेणियों में क्रमशः आगे बढ़ता हुआ अन्ततः पंचम श्रेणी अर्थात् इच्छा-शून्यता की दशा को प्राप्त करे। जैसे-जैसे जीवन-प्रबन्धक का स्तर बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे उसे बाह्य परिग्रहों का सीमाकरण भी करना होता है। बाह्य परिग्रह नौ प्रकार के हैं - क्षेत्र, वास्तु, रजत, स्वर्ण, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद एवं कुप्य । अर्थ-प्रबन्धन की प्रक्रिया में जीवन-प्रबन्धक को चाहिए कि वह पहले आवश्यकताओं का सम्यक् निर्धारण करते हुए अनुचित आवश्यकताओं का परित्याग करे और फिर उचित आवश्यकताओं की पूर्ति का सम्यक प्रयत्न करे। इतना ही नहीं, वह अपनी आवश्यकताओं को भी क्रमशः कम करता जाए। इस हेतु उसे अपने अर्थ के ग्रहण, सुरक्षा, उपभोग एवं संग्रह सम्बन्धी प्रक्रियाओं का सम्यक प्रबन्धन करना भी आवश्यक होता है। अर्थ-प्रबन्धन की प्रक्रिया में व्यक्ति क्रमशः तीव्राकांक्षी, मन्दाकांक्षी, मन्दतराकांक्षी, मन्दतमाकांक्षी एवं इच्छाजयी - इन पाँच भूमिकाओं को अपनाता हुआ आगे बढ़ता जाता है। इस तरह वह अर्थ-प्रबन्धन की विकास–प्रक्रिया में उत्तरोत्तर उच्च भूमिका की प्राप्ति करता हुआ अन्ततः सर्वोच्च दशा में पहुँचता है। सारांश यह है कि जीवन-प्रबन्धक 'अर्थ' को साधन बनाकर प्रयोग में लेता हुआ अन्ततः साधन का भी त्याग कर साध्य अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है। =====4.>===== 78 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 606 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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