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________________ 10.7 निष्कर्ष __ मनुष्य को जीवन निर्वाह के लिए जिन भौतिक एवं अभौतिक वस्तुओं की आवश्यकता होती है, वे 'अर्थ' कहलाती हैं। 'अर्थ' की आवश्यकता प्राचीन युग में थी, मध्य युग में रही और आधुनिक युग में भी है। यद्यपि सामान्य व्यक्ति धन-सम्पत्ति आदि अर्थों को सुख-शान्ति का साधन मानता है, किन्तु जैनदर्शन की आध्यात्मिक-दृष्टि में ये सुख-शान्ति के साधन नहीं, अपितु संज्ञाओं की सम्पूर्ति के लिए विवशता मात्र हैं। ___ अर्थ के महत्त्व को लेकर तीन विचारधाराएँ हैं - भौतिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक। भौतिक विचारधारा अर्थ को भौतिक-विकास का सशक्त साधन मानकर जीवन में उसे सर्वोपरि स्थान देती है। नैतिक विचारधारा सामाजिक जीवन को सुव्यवस्थित बनाने के लिए 'अर्थ' को जीवन का अनिवार्य साधन मानती है, परन्तु वह धर्म नियंत्रित 'अर्थ' को ही महत्त्व देती है। आध्यात्मिक विचारधारा 'अर्थ' को आजीवन आवश्यकता के रूप में नहीं, अपितु मोक्षानुकूल साधन के रूप में स्वीकार करती है और अन्ततः 'अर्थ' एवं 'भोग' के मोहपाश से पूर्णतया मुक्त होने का निर्देश देती है। वर्तमान में आर्थिक क्षेत्र में विशेष प्रगति हुई है, फिर भी सर्वांग से देखें, तो यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि वर्तमान अर्थनीति असन्तुलित, अमर्यादित एवं अव्यवस्थित है। दुष्परिणाम यह है कि व्यक्ति 'अर्थ' की मृगतृष्णा में फँसकर 'अर्थ' के पीछे भाग रहा है। उसके जीवन में 'अर्थ' साधन न रहकर साध्य बन गया है। अर्थ की तुलना में जीवन के शरीर, परिवार, पर्यावरण, धर्म, अध्यात्म आदि अन्य पक्षों की घोर उपेक्षा हो रही है। पर्यावरण का अतिदोहन होने से भावी पीढ़ी के अस्तित्व के लिए खतरा भी बढ़ता जा रहा है, अस्तु। उपर्युक्त दुष्परिणामों से बचने के लिए जैनआचारशास्त्रों पर आधारित अर्थ-प्रबन्धन की आज महती आवश्यकता है। अर्थ-प्रबन्धन के दो पक्ष हैं - सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक। सैद्धान्तिक-पक्ष के अनुसार, व्यक्ति की अर्थनीति में भौतिकता के साथ नैतिकता एवं आध्यात्मिकता का समन्वय होना आवश्यक है। 'अर्थ' केवल जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन न बनकर नैतिक एवं चारित्रिक उन्नति का साधन भी बनना चाहिए। यह स्वीकार होना चाहिए कि 'अर्थ' सम्यक् सुख का साधन तो है ही नहीं, उल्टा 'अर्थ' की लालसा दुःख और चिन्ता की जड़ है। अतः अर्थ का उपयोग औषधि के समान आवश्यकतानुसार ही करना चाहिए और आत्म-साधना करते हुए अर्थ की पराधीनता को क्रमशः समाप्त कर देना चाहिए। __ सैद्धान्तिक-पक्ष को आधार बनाकर अर्थ-प्रबन्धक को जीवन-व्यवहार में क्रमशः अर्थ का सीमांकन करते जाना चाहिए। इस हेतु जैनधर्मदर्शन में परिग्रह एवं उसके सीमाकरण की अवधारणा को स्पष्टतया समझाया गया है। जैनाचार्यों ने परिग्रह के दो भेद किये हैं - अंतरंग एवं बहिरंग। अंतरंग परिग्रह आशा, इच्छा, तृष्णा, लालसा और मूर्छा रूप है तथा बहिरंग परिग्रह धन-सम्पत्ति आदि बाह्य सामग्री/वस्तु रूप है। जैनाचार्यों ने अंतरंग एवं बहिरंग परिग्रह में भी अंतरंग परिग्रह की प्रधानता को स्वीकारा है और इसीलिए अंतरंग में अनासक्तिपूर्वक जीने का बारम्बार उपदेश भी दिया है। उन्होंने 605 अध्याय 10 : अर्थ-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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