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________________ 3) Jain Education International या 7 अल्प 4 4 45 17 32 तीव्रतम अधिकतम धर्म देशविरत 4 प्रत्याख्यानी क्रोध-मान-माया-लोभ सीमित धन, धान्य, मन्द अशुभ, अल्प दुःख व तीव्र अधिक अर्थ सम्यकदृष्टि 4 संज्वलन क्रोध-मान-माया-लोभ क्षेत्र, वास्तु, सुवर्ण, तीव्र शुभ, अधिक सुख मन्द अल्प काम गुणस्थान 6 हास्य-रति-अरति-भय-शोक-जुगुप्सा रजत, कुप्य, मन्द शुद्ध (भौतिक व आत्मिक) मन्दतम अल्पतम मोक्ष 3 पुरूषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, द्विपद, चतुष्पद अल्पतम 4 4 2 6 13 13 2 तीव्रतम अधिकतम धर्म व मोक्ष प्रमत्त संयत 4 संज्वलन क्रोध-मान-माया-लोभ तीव्रतम शुभ अतिअल्प दुःख व तीव्र अधिक 6 हास्य-रति-अरति-भय-शोक-जुगुप्सा व तीव्र शुद्ध अत्यधिक सुख (आत्मिक) मन्द अल्प 3 पुरूषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, या या मन्दतम अल्पतम मोक्ष अप्रमत्त संयत । गुणस्थान तीव्र शुद्ध अत्यधिक सुख (आत्मिक) शून्य 13/14 1 मोक्ष सयोगी पूर्णतम शुद्ध परम आत्मिक सुख केवली / अयोगी केवली गुणस्थान 5) For Personal & Private Use Only ====== ===== www.jainelibrary.org जीवन-प्रबन्धन के तत्त्च 604
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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