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________________ ये मुनिराज भले ही निर्धन, निर्वस्त्र और एकाकी ही क्यों न हो, परन्तु इच्छा रूपी शत्रुओं का पराभव करने से वे निर्भय, निराकुल एवं निर्द्वन्द्व आत्मिक सुख-पान करते रहते 01)1213 (देखिए सारणी इस भूमिका के उत्तरोत्तर विकास हेतु अर्थ - प्रबन्धक को निम्न कर्त्तव्य निभाने चाहि 1) सम्यग्दर्शन एवं सर्वविरति दशा में स्थिरता का दृढ़तापूर्वक प्रयत्न करना । 2) परभावों से छूटने एवं स्वभाव में रमण करने का बारम्बार अभ्यास करना । 3) अशुभभावों से बचने के लिए शुभभावों को अपनाना, किन्तु शुभभावों को भी समाप्त कर शुद्धभावों में स्थिर होने का निरन्तर प्रयत्न करना। 4) 'मैं शुद्धात्मस्वरूपी, सहज, अखण्ड, अनादिनिधन, एक अप्रतिबद्ध हूँ' ऐसी आत्म- जागृति सदैव रखने का अभ्यास करना । 5) आत्म-वैभव के प्रति बहुमान रखना तथा बाह्य - वैभव को तुच्छ जानना । की संपदा, राजलोक के भोग | देवलोक काग- विष्ट सम गिनत है, सम्यग्दृष्टि लोग । | 6) समस्त बाह्य आवश्यकताओं की पराधीनता से मुक्त होने का अभ्यास करना । 7) निरतिचार सम्यक्चारित्र का पालन करने का अभ्यास करना । 5) पंचम भूमिका इच्छाजी यह अर्थ - प्रबन्धक का चरम - साध्य है। इसमें जीव पूर्ण स्वाधीन हो जाते हैं और उनकी कोई इच्छा शेष नहीं रहती । जैनदर्शन में इन्हें वीतरागी, केवलज्ञानी, केवलदर्शी, जीतमोही, जीवनमुक्त, अरिहन्त, केवली आदि पदों से सम्बोधित किया जाता है । अर्थ- प्रबन्धन की अपेक्षा से इन्हें शून्याकांक्षी अथवा इच्छाजी भी कहा जा सकता है। 74 — Jain Education International - धर्म, अर्थ एवं काम पुरुषार्थों को विनष्ट कर ये वीतराग दशा या जीवनमुक्त दशा में आरूढ़ हो जाते हैं। पूर्ण निर्ममत्वी तथा निष्कषायी हो जाने से इनका बाह्य परिग्रह के साथ-साथ अंतरंग परिग्रह भी शेष नहीं रहता । व्यक्त-अव्यक्त इच्छाओं एवं आवश्यकताओं से रहित होकर ये निष्परिग्रही आत्म-भावों में संवृत (गुप्त) होकर जगत् में विचरण करते हैं। चूँकि इनमें इच्छाओं का ही अभाव हो जाता है, इसीलिए ये सादि - अनन्त काल के लिए अतुलनीय, अमित, अनुत्तर, अव्याबाध एवं निर्दोष सुख, शान्ति तथा आनन्द में निमग्न हो जाते हैं। इनमें शुभ-अशुभ भावों का पूर्ण अभाव तथा शुद्ध भावों का पूर्ण सद्भाव रहता है। इसी कारण इनका जन्म - जरा - मरण रूप संसार का परिभ्रमण समाप्त हो जाता है। कुल मिलाकर, यह सांसारिक अवस्था का अन्तिम दौर है, जिसके पश्चात् एक, अडोल, अकम्प, प्रशान्त, परिपूर्ण एवं स्थिर सिद्धावस्था की प्राप्ति सहज ही हो जाती है (देखिए सारणी - 01 ) । जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व - For Personal & Private Use Only 602 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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