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________________ नियमतः होते हैं, जबकि सातवें गुणस्थान में प्रमाद भी समाप्त होकर केवल कषाय तथा योग शेष रहते हैं, सातवें गुणस्थान में कषाय भी बुद्धिपूर्वक (व्यक्त) नहीं, केवल अबुद्धिपूर्वक (अव्यक्त) ही रहती है । जहाँ छठे गुणस्थान में धर्म एवं मोक्ष दोनों पुरूषार्थ होते हैं, वहीं सातवें गुणस्थान में एकमात्र मोक्ष पुरूषार्थ ही होता है । किन्तु दोनों ही गुणस्थानों में से किसी में भी अर्थ तथा काम पुरूषार्थ के लिए कोई स्थान नहीं होता । इच्छाएँ भी व्यक्त रूप से छठे गुणस्थान तक ही रहती हैं, सातवें में नहीं । तरतमता के आधार पर इन इच्छाओं के चार भेद किए जा सकते हैं - 1) अल्पतम प्रकार की तीव्रतम इच्छा 3) अल्पतम प्रकार की मन्द इच्छा 2) अल्पतम प्रकार की तीव्र इच्छा 4 ) अल्पतम प्रकार की मन्दतम इच्छा इन इच्छाओं की यह विशेषता है कि इनमें लेशमात्र भी सांसारिक हित या वृद्धि का प्रयोजन नहीं होता, बल्कि संयम में स्थिरता तथा अभिवृद्धि का पावन उद्देश्य ही होता है। चाहे प्रवृत्ति शरीर-हित, संघ-हित या आत्म-हित की क्यों न प्रतीत होती हो, परन्तु इसका अन्तिम साध्य मोक्षानुकूल धर्म-साधना ही होता है। इसी कारण आहार, पानी, निद्रा, उपचार, वैयावृत्य (सेवा-शुश्रूषा), सहयोग, धर्म-कथा, सदुपदेश, संलेखना (समाधिमरण) आदि विविध क्रियाकलापों में काम, लोभ, मद, माया आदि सांसारिक प्रयोजनों का अभाव होता है। कहा जा सकता है कि इन इच्छाओं में वैसी व्याकुलता नहीं होती, जैसी सामान्य संसारी प्राणियों की इच्छाओं में होती है। फिर भी मुनिराज इन इच्छाओं को भी आत्म- दूषण मानते हैं तथा इनसे निवृत्त होकर शुद्धात्मस्वरूप का आश्रय लेकर आत्म-रमणता के अनिर्वचनीय सुखों का बारम्बार सेवन करते हैं। इस आत्मरमणता की दशा को ही सातवाँ गुणस्थान कहते हैं । यद्यपि छठे से सातवाँ श्रेयस्कर है, तथापि छठे गुणस्थान में रहते हुए मन्दतम इच्छाओं में जीना ही श्रेष्ठ है । छठे गुणस्थान में व्यक्त इच्छाओं के प्रभावशील होने से उत्पन्न आवश्यकताओं के पुनः अधिकतम, अधिक, अल्प एवं अल्पतम ये चार प्रकार होते हैं। इनमें भी अल्पतम आवश्यकता वाला जीवन अधिकतम की अपेक्षा से उत्तम है। ध्यातव्य है कि इन मुनिराजों की आवश्यकताओं में आग्रह- बुद्धि, पाप-बुद्धि एवं असहजता का अभाव होता है। यह स्थिति भी छठे गुणस्थान की है, सातवें में तो बुद्धिपूर्वक कोई आवश्यकता ही नहीं बचती । इस सोपान पर अंतरंग परिग्रह तेरह एवं बहिरंग परिग्रह शून्य रह जाते हैं। अंतरंग - परिग्रह भले ही संख्या की अपेक्षा से तेरह प्रकार के हैं, किन्तु भावों की अपेक्षा से नगण्य । यहाँ तक कि सातवें गुणस्थान में बुद्धिपूर्वक ( व्यक्ततापूर्वक) किसी प्रकार का भी अंतरंग - परिग्रह नहीं होता। इसमें भावदशा भी पूर्व के सोपानों की अपेक्षा श्रेष्ठ होती है। छठे गुणस्थान में अशुभभावों का पूर्ण अभाव एवं उत्कृष्ट शुभभावों का सद्भाव रहता है, जबकि सातवें में तो एकमात्र शुद्धभाव ही रहते हैं। इससे उत्कृष्ट पुण्य कर्मों का बन्धन अथवा संसार - परिभ्रमण का तीव्रगति से ह्रास होता है। 601 अध्याय 10: अर्थ-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only 73 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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