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________________ परिणामतः वह परलोक में उत्तम देवगति के योग्य कर्मों का संचय करता है। साथ ही, शुद्ध भावों में भी यथायोग्य वृद्धि होने से उसका संसार-परिभ्रमण भी परिमित होता जाता है और इस तरफ इच्छाओं की मन्दता तथा आत्मिक-स्थिरता की वृद्धि होने से उसका दुःख अल्प तथा सुख अधिक होता जाता है। जैसे-जैसे आत्मा साधना के द्वारा उसके ज्ञाता-दृष्टा भाव एवं अकषाय–वृत्ति की अभिवृद्धि होती है, वैसे-वैसे वह प्रबन्धक अपने व्रतों में उत्तरोत्तर विकास करता हुआ अणुव्रतों से महाव्रतों की ओर बढ़ता जाता है (देखें सारणी – 01, पृ. 75)। इस भूमिका के सफल निर्वहन हेतु अर्थ-प्रबन्धक को निम्नलिखित कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिए - 1) सम्यग्दर्शन में स्थिर रहना। 2) बारह व्रतों का निरतिचार (निर्दोष) पालन करना। 3) यथायोग्य तत्त्वचिन्तन पूर्वक वैराग्यवर्धक भावनाएँ करना। 4) जैनाचार्यों द्वारा निर्दिष्ट ग्यारह प्रतिमाओं को अंगीकार करना। 5) अशुभ प्रवृत्तियों को दूर करके पूजा, भक्ति, स्वाध्याय, ध्यान एवं कायोत्सर्ग आदि शुभ प्रवृत्तियों में संलग्न रहना। 6) अशुभ भावों को दूर करके प्रशम (क्षमा), संवेग (पापभीरुता), निर्वेद (वैराग्य), अनुकम्पा (दया) एवं आस्तिक्य (तत्त्व-श्रद्धा) आदि शुभ भावों की अभिवृद्धि करना। 7) आत्मिक स्थिरता रूप शुद्ध भावों की अभिवृद्धि करना। 8) तीव्रतम इच्छाओं से मन्दतम इच्छाओं वाली जीवनशैली का विकास करना। 9) अधिकतम आवश्यकता से अल्पतम आवश्यकता की ओर बढ़ना। 10) अंतरंग में प्रत्याख्यानी कषाय के निवारण हेतु प्रयत्न करना। 11) बहिरंग में मुनि जीवन अंगीकार करने का अभ्यास करना। 4) चतुर्थ भूमिका : मन्दतमाकांक्षी इसमें व्यक्ति की आत्मिक शक्तियाँ और अधिक विकसित हो जाती हैं। तथा इच्छाओं का स्रोत 'अल्पतम' प्रकार का हो जाता है। वह संसार, भोग एवं शरीर सम्बन्धी ममत्व भावों से विरक्त होकर मुनिदशा को प्राप्त करता है। वह तृष्णा को तृणवत् मानता है। उसकी संसार सम्बन्धी प्रवृतियों में उदासीनता तथा आत्महित की प्रवृतियों में जागृति आ जाती है। वह पंच महाव्रतों को ग्रहण करते हुए पंच ऐन्द्रिक विषयों पर विजय प्राप्त करता है। उसे मन्दतमाकांक्षी कहना उचित प्रतीत होता है, क्योंकि वह इच्छाजयी दशा के बिल्कुल निकट रहता है। आध्यात्मिक विकास-क्रम की दृष्टि से, यह दशा षष्ठम एवं सप्तम गुणस्थानवर्ती अर्थात् क्रमशः प्रमत्त एवं अप्रमत्त मुनियों की है। इस दशा के मुनिराज अन्तर्मुहूर्त की अवधि में छठे से सातवें तथा सातवें से छठे गुणस्थान में झूलते रहते हैं। छठे गुणस्थान में प्रमाद, कषाय एवं योग - ये तीन दोष जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 600 72 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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