SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 693
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ iii) अनर्थदण्ड-विरमण व्रत - निष्प्रयोजन किए जाने वाले कार्यों का त्याग करना। 3) शिक्षाव्रत – विशिष्ट आत्म-साधना की ओर अग्रसर होने रूप व्रत। इसके चार प्रकार हैं - i) सामायिक व्रत - समभाव की साधना करना। ii) देशावगासिक व्रत - दिशा-परिमाण व्रत में गृहीत क्षेत्र-परिमाण को दिन या रात्रि में किसी नियत समय के लिए और अधिक मर्यादित करके उसके बाहर की सांसारिक प्रवृत्तियों से सर्वथा निवृत्त होना। iii) पौषधोपवास व्रत - संसारलक्षी सर्व प्रवृत्तियों को छोड़कर आत्मा का पोषण एवं विकास करने हेतु सम्पूर्ण दिन अथवा रात मुनिवत् जीने का अभ्यास करना। iv) अतिथि–संविभाग व्रत - अपने अधिकार की वस्तुओं में से अतिथि के लिए समुचित विभाग करना। अर्थ-प्रबन्धक की दृष्टि से ये बारह व्रत अतिमहत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि इनके द्वारा उसके धन-धान्यादि बाह्य परिग्रहों एवं इच्छा रूपी अंतरंग परिग्रहों का परिसीमन हो जाता है। ___ इस दशा में सामान्यतया चारों पुरूषार्थों धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष का सह-अस्तित्व होता है, फिर भी जीवन-व्यवहार में धर्म एवं मोक्ष की मुख्यता तथा अर्थ एवं काम की गौणता स्पष्ट दिखती है। तरतमता की अपेक्षा से व्यक्ति की इच्छाएँ चार प्रकार की होती हैं - 1) अल्प वर्ग की तीव्रतम इच्छा 3) अल्प वर्ग की मन्द इच्छा 2) अल्प वर्ग की तीव्र इच्छा 4) अल्प वर्ग की मन्दतम इच्छा यद्यपि पूर्व सोपानों की तुलना में इसमें स्थित व्यक्ति की आकुलता बहुत कम होती है, वह प्रायः शान्त एवं सहज होता है, तथापि उपर्युक्त मन्दतम इच्छा वाला प्रबन्धक अपेक्षाकृत और अधिक शान्त एवं सहज होता है। इस भूमिका में स्थित प्रबन्धक की इच्छाओं से उत्पन्न आवश्यकताएँ पूर्ववत् चार प्रकार की होती हैं 1) अधिकतम 2) अधिक . 3) अल्प 4) अल्पतम जीवन-व्यवहार में अनावश्यक तत्त्वों का आंशिक परित्याग होने तथा आवश्यक तत्त्वों का विवेकपूर्वक सीमाकरण होने से इसमें अपेक्षाकृत बहुत कम आवश्यकताएँ शेष रहती हैं, फिर भी, अल्पतम आवश्यकता वाला जीवन और अधिक श्रेष्ठ है। ___आध्यात्मिक विकास की अपेक्षा से यह दशा देशविरति नामक पंचम गुणस्थान कहलाती है। इसे ही ‘संयमासंयम' अथवा 'विरताविरत' भी कहा गया है। इसमें अंतरंग एवं बाह्य परिग्रहों की मर्यादा हो जाती है। अंतरंग परिग्रह सतरह एवं बाह्य परिग्रह नौ ही शेष रहते हैं। __ इस भूमिका में आरूढ़ प्रबन्धक के अशुभ भावों की मन्दता एवं शुभभावों की तीव्रता होती है, अध्याय 10 : अर्थ-प्रबन्धन 599 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy