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________________ इस प्रकार, अर्थ-प्रबन्धक के जीवन में संग्रह-प्रबन्धन का अत्यन्त महत्त्व है। उसे चाहिए कि वह एक ओर संग्रह के अतिरेक पर उचित लगाम दे और दूसरी ओर अन्य जीवों के प्रति आत्मवत् दृष्टि से दया, दान, सेवा, सहयोग एवं संविभाग का सद्व्यवहार करे। (ग) अर्थ-प्रबन्धन का विकास-क्रम अर्थ-प्रबन्धन की प्रक्रिया में किसी भी प्रबन्धक के लिए तीन करणीय कर्त्तव्य हैं - ★ वर्तमान भूमिका के साथ न्याय करना - प्रबन्धक का प्रथम कर्तव्य है कि वह अपनी वर्तमान भूमिका या स्तर की सही पहचान करे एवं भमिकानरूप अपनी उचित आवश्यकताओं की पूर्ति का प्रयत्न उचित साधन-शुद्धि के साथ करे। * उत्तरोत्तर उच्च भूमिका की प्राप्ति करना - प्रबन्धक का द्वितीय कर्त्तव्य है कि वह अपनी भूमिका या स्तर के उत्तरोत्तर विकास का सम्यक् प्रयत्न भी करता रहे। इस हेतु वह अपने दृष्टिकोण एवं व्यवहार को शुद्ध करे। पदार्थाश्रित जीवन-दृष्टि को छोड़कर आत्माश्रित जीवन-दृष्टि के आधार पर अपना जीवन-व्यवहार करे। इससे उसके भावों में शुभ्रता, कषायों में मन्दता, इच्छाओं में कमी और आवश्यकताओं में अल्पता आती जाएगी। परिणामस्वरुप उसका अंतरंग एवं बहिरंग परिग्रह संयमित होता जाएगा। साथ ही, न केवल तात्कालिक जीवन में, बल्कि भावी जीवन में भी दुःखों में कमी तथा सुख–शान्ति में वृद्धि होती जाएगी। ★ सर्वोच्च दशा की प्राप्ति करना - प्रबन्धक का अन्तिम कर्त्तव्य है कि वह अर्थ-प्रबन्धन की चरम या सर्वोच्च दशा की प्राप्ति हेतु सदैव प्रयत्नशील रहे। वह भले ही शनैः-शनैः, लेकिन दृढ़तापूर्वक इस भूमिका को अपना लक्ष्य-बिन्दु बनाए, क्योंकि यही वह अवस्था है, जिसमें अर्थ रूपी औषधि की पराधीनता सदा-सदा के लिए समाप्त हो जाती है और आत्मा परम सुख रूपी आरोग्य को प्राप्त कर लेती है। अर्थ-प्रबन्धन की प्रक्रिया में व्यक्ति विविध भूमिकाओं का निर्वाह करता हुआ क्रमशः आगे बढ़ता जाता है। ये भूमिकाएँ अनगिनत हो सकती हैं, किन्तु मुख्य रूप से पाँच हैं (देखें सारणी – 01, पृ. 75) - 1) तीव्राकांक्षी 2) मन्दाकांक्षी 3) मन्दतराकांक्षी 4) मन्दतमाकांक्षी 5) इच्छाजयी 1) प्रथम भूमिका : तीव्राकांक्षी ___ यह अर्थ-प्रबन्धक का प्राथमिक (जघन्य) सोपान है, जिसमें उसकी अर्थ सम्बन्धी आकांक्षाएँ तीव्र (असीम) होती हैं। यद्यपि वह प्रायः अशान्त, दुःखी एवं निराश रहता है, फिर भी कभी-कभी शान्त, प्रसन्न एवं सन्तोषी भी प्रतीत होता है। किन्तु, दोनों ही दशाओं में उसे तीव्राकांक्षी ही मानना चाहिए, क्योंकि उसकी इच्छाओं का मूल स्रोत 'असीम' प्रकार का होता है। उसकी यह मान्यता होती है कि जितना अधिक अर्थ होगा, उतना ही अधिक जीवन सुखी एवं आनन्दित होगा। अतएव वह अर्थ के प्रति अत्यधिक आतुर एवं रागी-द्वेषी रहता है तथा इस व्याकुलता के कारण दुःखी भी रहता है। कदाचित् जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 594 66 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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