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________________ दे रहा है। संग्रह-प्रबन्धक के लिए यह आवश्यक है कि वह पूरे विश्व पर अपना एकाधिकार जमाने का कुस्वप्न न देखे एवं कुचेष्टा न करे। दशवैकालिकसूत्र की निम्न पक्तियाँ सदैव स्मरण रखे05 - वयं च वित्तिं लब्मामो, न य कोइ उवहम्मइ । अहागडेसु रीयंते, पुप्फेसु भमरा जहा।। आशय यह है कि जिस तरह भ्रमर पुष्पों से पराग प्राप्त कर लेता है और पुष्प का उपमर्दन (हिंसा) भी नहीं करता, उसी तरह हमें भी अन्यों का शोषण (हिंसा) न करते हुए जीवन-निर्वाह कर लेना चाहिए। इस हेतु असंग्रहवृत्ति को अपनाना आवश्यक है, क्योंकि संग्रह करना अप्रत्यक्ष रूप से दूसरों के अधिकारों का शोषण करना (उपमर्दन) ही है। जैनाचार्यों ने आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से भी असंग्रह-वृत्ति का उपदेश दिया है। दशवैकालिकसूत्र में स्पष्ट कहा गया है – 'असंविभागी न हु तस्स मोक्खो' अर्थात् जो साधक दूसरों के लिए अपने स्वामित्व की वस्तुओं का सम्यक विभाग नहीं करते, वे भावों की कलुषता से ग्रस्त रहने से मोक्ष के सही अधिकारी नहीं बन पाते । 206 इससे स्पष्ट है कि जीवन-प्रबन्धक को भी अपनी संग्रह-वृत्ति को मर्यादित कर अपने अर्थ का सदुपयोग दूसरे जरुरतमंदों के लिए करना चाहिए। जैन-मुनि का जीवन असंग्रह-वृत्ति का उत्कृष्ट एवं प्रेरक उदाहरण है। एक जैन-मुनि के जीवन का प्रसंग है। उन्होंने कार्यवशात् किसी से एक सुई ली, किन्तु लौटाना भूल गए। अगले दिन वे प्रस्थान करके दूसरे स्थान पर पहुँचे। अचानक उन्हें सुई का स्मरण हो आया। आश्चर्य का विषय है कि वे वापस पिछले गाँव में सुई लौटाने हेतु गए। धन्य है उनकी असंग्रहवृत्ति, निस्पृहता एवं जागरुकता। यह किसी साधुविशेष की ही नहीं, बल्कि जैन-परम्परा की सामान्य आचार-संहिता है।207 जैन मुनि के लिए कहा भी गया है - ये मुनिराज सदा सुखी रहते हैं, क्योंकि ये हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन एवं बहिरंग-अंतरंग दोनों परिग्रह का त्यागकर आत्म-विलास में सदैव निमग्न रहते हैं।208 हिंसा-मोष अदत्त निवारी, नहीं मैथुन के पास। द्रव्य-भाव परिग्रह के त्यागी, लीने तत्त्व विलास ।। जैन-श्रावक को भी परिग्रह का सम्यक् परिमाण करने का निर्देश दिया गया है। उसे चाहिए कि वह सुखी जीवन के लिए संग्रह के साथ सन्तोष का समन्वय करे। वह यह भूल न करे कि जीवन तो हो चार दिन का और सामान हो सौ साल का। भगवान् महावीर के प्रमुख अनुयायी पुनिया श्रावक का जीवनादर्श सदैव स्मरण रखना चाहिए, जो प्रतिदिन जीवन-निर्माण की साधना को प्राथमिकता देते हुए केवल इतना ही धनोपार्जन करता था, जिससे उसके एक दिन के जीवन-यापन की व्यवस्था हो सके। इसी कारण भगवान् महावीर को भी कहना पड़ा कि जैसा सुख पुनिया को है, वैसा सुख तो सम्राट् श्रेणिक को स्वप्न में भी नहीं मिल सकता।209 593 अध्याय 10 : अर्थ-प्रबन्धन 65 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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