SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 675
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उसे यह आत्मविश्वास भी जाग्रत करना चाहिए कि निर्धारित आवश्यकताओं में और अधिक कटौती भी सम्भव है या इनके बिना भी जीवन जिया जा सकता है। इस हेतु अर्थ-प्रबन्धक को समय-समय पर नियत वस्तु के बिना भी जीने का अभ्यास करना चाहिए, जिससे उसके आत्मबल का विकास हो सके और साधना में निखार आ सके। परिणामस्वरूप, उसमें शारीरिक एवं मानसिक परिपक्वता आती जाती है और पूर्व में जो वस्तु अत्यावश्यक महसूस होती थी, वह धीरे-धीरे आवश्यक और आगे अनावश्यक की श्रेणी में पहुँच जाती है। इस प्रकार जीवन यात्रा में इच्छाएँ अनन्तता से शून्यता की ओर सिमटती जाती हैं और अर्थ-प्रबन्धक की प्रसन्नता और आत्मनिर्भरता सतत बढ़ती जाती है। (2) आवश्यकताओं की पूर्ति का सम्यक् प्रयत्न (क) साधनों के प्रयोग में सावधानियाँ अर्थ-प्रबन्धन के लिए आवश्यकतापूर्ति के साधनों का सम्यक् विश्लेषण करना भी एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। इस विश्लेषण के आधार पर ही उसे उचित साधनों का चयन करके उनका सम्यक् प्रयोग करना चाहिए। ★ कषायों की मन्दता - अर्थ सम्बन्धी प्रयत्नों में चारों प्रकार की कषायों – क्रोध, मान, माया और लोभ का प्रतिक्षण प्रयोग होता रहता है। अक्सर इनका अतिरेक हो जाया करता है। ज्यों-ज्यों लाभ और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती जाती है, त्यों-त्यों लोभ और मान बढ़ता जाता है। इसके विपरीत इसमें विघ्न या विफलता हाथ लगने पर क्रोध और माया भी बढ़ जाती है। इससे चारित्र की हानि हुए बगैर नहीं रहती। कषायों की तीव्रता से व्यक्ति के इहलोक और परलोक - दोनों बिगड़ जाते हैं। अतः अर्थ-प्रबन्धक के लिए कषायों की तीव्रता को नियन्त्रित करने का अभ्यास करना अत्यावश्यक है। कहा भी गया है – क्रोध को क्षमा से, मान को मृदुता से, माया को सरलता एवं ईमानदारी से तथा लोभ को सन्तोष से जीतने का प्रयत्न करना चाहिए। वस्तुतः यही सुखी जीवन की कुंजी है। ★ प्रवृत्तियों की शुभ्रता - अर्थ-पुरूषार्थ में मानसिक, वाचिक एवं कायिक प्रवृत्तियों की विशिष्ट भूमिका होती है। अर्थ-प्रबन्धन के लिए इनकी, सात्विकता पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। इनके दुरुपयोग से स्व–पर दोनों का ही नुकसान होता है। बाहर में हिंसा, झूठ, चोरी आदि के द्वारा अन्य जीवों को हानि पहुँचती है, तो अंतरंग में पाप-कर्मों का संचय भी होता है। अतः अर्थ-प्रबन्धक को मन से दुश्चिन्तन, वचन से अहितकारी, अमितकारी एवं अप्रियकारी भाषा का प्रयोग तथा काया से हिंसा, चोरी आदि असद्व्यवहार नहीं करने चाहिए। * कृत, कारित एवं अनुमत की सावधानी – व्यक्ति अन्योन्याश्रित (Interdependent) होता है। सामाजिक जीवन में व्यक्ति कभी स्वयं कार्य में जुटता है, कभी दूसरों को कार्य में नियुक्त करता है और कभी दूसरों को कार्य हेतु अनुमति, प्रेरणा, प्रोत्साहन एवं समर्थन आदि प्रदान 581 अध्याय 10 : अर्थ-प्रबन्धन 53 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy