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________________ साध्य की सिद्धि के लिए उचित साधनों को प्राप्त करने का प्रयत्न तो करना चाहिए, फिर भी यदि साधन उपलब्ध न हो सकें, तो अपनी आवश्यकताओं को विवेकपूर्वक निरस्त कर देना चाहिए अन्यथा इच्छापूर्ति के प्रयत्न व्यर्थ होकर असन्तोष के कारण भी बन जाते हैं। कुल मिलाकर, साधनों के अभाव में व्यक्ति को व्यर्थ ही इच्छापूर्ति का हठाग्रह नहीं रखना चाहिए। उदाहरणार्थ, पूंजी के अभाव में भी आलीशान मकान, कार, नौकर-चाकर, फर्नीचर आदि की इच्छा रखना मूर्खता है। ★ पूर्ति की सम्भावना के आधार पर - अक्सर वे आवश्यकताएँ भी असन्तोष का कारण बन जाती हैं, जिनकी बाजार में पूर्ति की सम्भावना न हो। अतः अर्थ-प्रबन्धक को बाजार की स्थिति की भी समीक्षा करनी चाहिए। यदि सम्भावना अल्प हो अथवा न हो, तो इच्छाओं को निरस्त कर देना ही उचित है, अन्यथा कई बार समय, श्रम एवं धन बेकार चला जाता है। ★ उद्देश्यों के आधार पर - आवश्यकता के निर्धारण करने के पूर्व यह विश्लेषण करना भी आवश्यक है कि आवश्यकता का उद्देश्य क्या है? स्वार्थ, परार्थ अथवा आत्मार्थ। जैनदर्शन में यह स्पष्ट मन्तव्य है कि परार्थ के लिए स्वार्थ का त्याग करना सर्वथा उचित है, किन्तु आत्मार्थ का नहीं।173 अतः अर्थ-प्रबन्धक को इन तीनों उद्देश्यों के बीच निम्न सन्तुलन स्थापित करना जरुरी है - • वह आत्महित की आवश्यकताओं को सर्वोपरी प्राथमिकता दे। • वह लोकहित की आवश्यकताओं को सापेक्षिक प्राथमिकता दे। • वह स्वार्थजन्य आवश्यकताओं को यथाशक्य गौणता प्रदान करे। ★ वैकल्पिकता के आधार पर - कुछ आवश्यकताएँ वैकल्पिक (Optional) होती हैं, जिन्हें अनेक प्रकार से सन्तुष्ट किया जा सकता है। अतः उनका निर्धारण करते समय अर्थ-प्रबन्धक को उचित लचीलापन (Flexibility) रखना आवश्यक है।74 ★ माँग के आधार पर - आवश्यकताओं का निर्णय लेने से पूर्व ही यह समीक्षा भी जरुरी है कि इसकी माँग का सही आधार क्या है - वास्तविक, औपचारिक अथवा काल्पनिक। काल्पनिक आवश्यकताओं का परित्याग, औपचारिक आवश्यकताओं का परिसीमन तथा वास्तविक आवश्यकताओं की पूर्ति का प्रयत्न करना चाहिए। ★ पूर्ति के स्रोत के आधार पर - यह विश्लेषण भी जरुरी है कि आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नवीन वस्तुओं को ग्रहण करना चाहिए अथवा पूर्व-संगृहीत वस्तुएँ ही पर्याप्त हैं। वस्तुतः, नवीन के बजाय पूर्व-संगृहीत वस्तुओं के द्वारा ही आवश्यकतापूर्ति को प्राथमिकता देनी चाहिए। इस प्रकार, आवश्यकताओं का विश्लेषण कर अत्यावश्यक को प्राथमिकता देना और अनावश्यक को छोड़ने का विवेक प्रतिसमय जाग्रत रखना अर्थ-प्रबन्धक का कर्त्तव्य है। साथ ही आवश्यकताओं को धीरे-धीरे कम करने की निरन्तर जागृति रखते हुए जीवन-यापन करना भी आवश्यक है। धीरे-धीरे 52 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 580 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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