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________________ आदि। * अनावश्यक वस्तुएँ (Unimportant) – वे वस्तुएँ जो जीवन में वासना, विलासिता, सुविधाएँ, प्रतिष्ठा-प्रदर्शन, फैशन, व्यसन आदि से सम्बन्धित होती हैं, हानिकारक भी होती हैं और कुछ ही समय में आदत या व्यसन का रूप धारण कर लेती हैं, साथ ही समय, श्रम, सम्बन्ध, सम्मान, सद्गुण, संस्कार आदि को विकृत भी कर देती हैं, अनावश्यक वस्तुएँ कहलाती हैं, जैसे - कॉस्मेटिक्स, महँगी गाड़ियाँ, विशाल हवेलियाँ, कीमती वस्त्र, मादक द्रव्य, महँगा फर्नीचर, आकर्षक आभूषण आदि । इस प्रकार, जीवन के प्रत्येक स्तर पर अर्थ का उपर्युक्त विभाजन किया जा सकता है। इस हेतु निम्न बातों को ध्यान में रखना आवश्यक है - ★ यह विभाजन प्रत्येक प्रबन्धक के लिए भिन्न-भिन्न होता है, क्योंकि वैयक्तिक संस्कार, रुचि, उद्देश्य, शिक्षा, संगति, कर्म-प्रेरणा, पृष्ठभूमि, उम्र, भौगोलिक व्यवस्था आदि जीवन के विविध पहल प्रायः सभी के भिन्न-भिन्न होते हैं। ★ यह विभाजन यद्यपि व्यक्तिगत होता है, तथापि यह मनेच्छा अथवा लोक-प्रवाह की विकृतियों पर आधारित न होकर अर्थ की वास्तविक उपयोगिता पर आधारित (Need based system) होना चाहिए। ★ यह लोचपूर्ण होने से देश, काल, व्यक्ति एवं परिस्थिति के आधार पर परिवर्तनशील होता है। ★ इसके आधार पर व्यक्ति को कर्त्तव्यत्रय का पालन करना चाहिए - 1) अनावश्यक का समाप्तीकरण 2) आवश्यक का संक्षेपीकरण एवं 3) अत्यावश्यक का सात्विकीकरण। (ख) आवश्यकताओं का विश्लेषण अर्थ-प्रबन्धक को अपनी आवश्यकताओं का उचित विश्लेषण करना भी आवश्यक है और इस हेतु उसे निम्नलिखित मापदण्डों के आधार पर विश्लेषण करना चाहिए। ★ काल के आधार पर - अर्थ-प्रबन्धक को यह विश्लेषण करना जरुरी है कि आवश्यकताओं का सम्बन्ध किस काल से है - भूत, वर्तमान अथवा भविष्य से और वर्तमान में उनकी कोई प्रासंगिकता है भी अथवा नहीं। यदि प्रासंगिकता न हो, तो उस आवश्यकता को निरस्त कर देना चाहिए। * साधनों की उपलब्धता के आधार पर - अर्थ-प्रबन्धक को आवश्यकतापूर्ति के साधनों का भी सम्यक् विश्लेषण करना आवश्यक है। जैनाचार्यों ने साधनों के सन्दर्भ में दो सिद्धान्त प्रतिपादित किए हैं, जिन्हें ध्यान में रखकर अर्थ-प्रबन्धक को अपना व्यवहार करना चाहिए - प्रथम यह है कि साधन के बिना साध्य की सिद्धि नहीं होती71 एवं द्वितीय यह है कि इच्छाएँ भले ही असीम हों, किन्तु साधन सदैव सीमित ही होते हैं।172 अतः अर्थ-प्रबन्धक को सम्यक् 579 अध्याय 10 : अर्थ-प्रबन्धन 51 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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