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________________ करता है। जैनदर्शन में इन्हें ही क्रमशः कृत, कारित एवं अनुमत रूप त्रिकरण कहा गया है। चूँकि सामाजिक जीवन में व्यक्ति अन्योन्याश्रित होता है, अतः उसे इन त्रिकरणों का प्रयोग तो करना ही होता है। उसे इनके अनावश्यक प्रयोगों से बचने का यथासम्भव प्रयास करना चाहिए क्योंकि जैनदर्शन में स्पष्ट कहा गया है कि कृत-कारित-अनुमत तीनों से हुए शुभाशुभ कर्मों का भुगतान प्रत्येक व्यक्ति को करना ही पड़ता है। आध्यात्मिक-साधना के विकास क्रम में साधक को यह भी चाहिए कि वह कृत-कारित–अनुमत का क्रमशः परित्याग करते जाए। 178 जैसे-जैसे व्यक्ति की आवश्यकता कम होती जाती है, वैसे-वैसे उसकी गतिविधियाँ भी स्वतः कम होती जाती हैं। ★ संरम्भ, समारम्भ एवं आरम्भ की उचितता179 - अर्थ सम्बन्धी प्रक्रियाओं के अन्तर्गत कार्य-योजना बनाना, कार्य हेतु साधनों को जुटाना तथा कार्य का क्रियान्वयन करना - ये तीनों कार्य होते ही हैं, जिन्हें जैनदर्शन में क्रमशः संरम्भ, समारम्भ एवं आरम्भ कहा गया है। यद्यपि ये तीनों ही आवश्यक हैं, फिर भी अर्थ-प्रबन्धक को इनके अतिरेक पर उचित नियंत्रण करना चाहिए। यह आवश्यक है कि संरम्भ हो, लेकिन इसमें अनावश्यक आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान अर्थात् हर्ष-विषाद न हो। यह भी जरुरी है कि भूमि, श्रम, पूंजी, प्रबन्ध और साहस आदि साधनों का एकत्रीकरण (समारम्भ) हो, किन्तु यह कार्य उचित मात्रा में, उचित गुणवत्ता के साथ, उचित समय पर एवं अल्पातिअल्प पाप-व्यापारपूर्वक हो। इसी तरह आरम्भ सम्बन्धी कार्यों के लिए आवश्यक है कि उनकी मर्यादा हो। ★ उत्पादन के बाह्य साधनों का सम्यक् प्रयोग - आधुनिक अर्थशास्त्री अल्फ्रेड मार्शल ने उत्पादन के बाह्य साधनों के पाँच विभाग किए हैं – 1) भूमि 2) श्रम 3) पूंजी 4) प्रबन्धन और 5) साहस ।180 जैनग्रन्थों में उत्पादन के साधनों का ऐसा वर्गीकरण तो नहीं मिलता, तथापि इन सब तथ्यों का यथावसर विश्लेषण एवं विवेचन अवश्य किया गया है। 181 अर्थ-प्रबन्धन की सफलता के लिए हमें इन पाँचों साधनों के प्रयोग में उचित विवेक रखना चाहिए, अन्यथा यही साधन बहु-आरम्भ-परिग्रह रूप होने से नरकावास के साधन भी सिद्ध हो सकते हैं।182 इस प्रकार, बाह्य एवं अंतरंग साधनों का पूरी सजगता के साथ सदुपयोग करना चाहिए। चाहे मकान बनाना हो, दुकान चलाना हो, भोजन बनाना हो, उद्योग चलाना हो, खेती करनी हो, यात्रा करनी हो या अन्य कोई भी कार्य क्यों न करना हो, हमें निरर्थक ही दूसरे जीवों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए, जो हमें अपने लिए पसन्द न हो।183 स्थूल-हिंसा आदि दोष तो करना ही नहीं,184 लेकिन निरर्थक सूक्ष्म-हिंसा आदि दोषों से भी बचना चाहिए।185 फिर भी भूलवश यदि दोषों का सेवन हो जाए, तो सजगता एवं सहजता के साथ उनकी निन्दा, गर्दा (गुरू के समक्ष दोषों की स्वीकृति), आलोचना, प्रतिक्रमण एवं प्रत्याख्यान अवश्य करना चाहिए। यही जैनाचार्यों द्वारा निर्दिष्ट साधन-शुद्धि है। 54 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 582 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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