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4) कषाय
यह आत्मा का वह भाव है, जिसके कारण वह समता की मर्यादा में नहीं रह पाती। वह बाह्य अर्थ की प्राप्ति के निमित्त क्रोध, मान, माया एवं लोभ रूप विकारी भावों (इच्छाओं) को उत्पन्न कर लेती है। यह आत्मा का वह भाव है, जिसके कारण आत्मा में चंचलता (कम्पन) की उत्पत्ति होती है और बाह्य में मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति भी संचालित होने लगती है। यह प्रत्यक्षतया इच्छाओं की उत्पत्ति का कारण नहीं है।
5) योग
यह कहना भी आवश्यक होगा कि उपर्युक्त कारणों में से कोई भी पूर्ववर्ती कारण मौजूद होने पर उत्तरवर्ती सभी कारण नियमतः रहते ही हैं। इसी कारण अर्थ-प्रबन्धन की प्रक्रिया में पूर्व-पूर्व के कारणों को दूर करते हुए अपनी भूमिका में क्रमशः अभिवृद्धि करनी चाहिए। इसका विस्तृत विवेचन इस अध्याय के अन्त में किया गया है। 10.6.6 परिग्रह प्रबन्धन : इच्छाओं का प्रबन्धन
उपर्युक्त चर्चा से यह स्पष्ट है कि अर्थ-प्रबन्धन किसी अपेक्षा से अंतरंग परिग्रह अर्थात् इच्छाओं का प्रबन्धन ही है, क्योंकि जैसे-जैसे अंतरंग परिग्रह का प्रबन्धन होता है, वैसे-वैसे बहिरंग परिग्रह का प्रबन्धन भी होता जाता है। अतः सम्यक् अर्थ-प्रबन्धन के लिए व्यक्ति को इच्छाओं का विश्लेषण करना आवश्यक है। इस हेतु जैनदर्शन में निर्दिष्ट उपर्युक्त अंतरंग परिग्रह के पाँच कारणों के आधार पर व्यक्ति में विद्यमान इच्छाओं को पाँच जातियों में विभक्त किया जा सकता है, जो इस प्रकार हैं - (1) असीम – यह इच्छाओं की वह श्रेणी (जाति) है, जिसमें उत्पन्न होने वाली इच्छाएँ अन्तहीन होती हैं, क्योंकि इनका कोई निर्धारित अन्तिम बिन्दु (Deadline) ही नहीं होता। मूलतः यह व्यक्ति की मिथ्यात्व भाव से युक्त दशा है, जिसमें वह अविरति, प्रमाद , कषाय एवं योग - इन चारों कर्मबन्धनों के कारणों से भी युक्त रहता है। इस अवस्था में व्यक्ति अपनी इच्छाओं का निरन्तर पोषण ही करता रहता है। उसकी किसी इच्छाविशेष की पूर्ति हो जाने पर भी इच्छाओं की मूल जाति 'असीम' ही बनी रहती है, जिसमें इच्छाओं का प्रवाह सतत जारी रहता है। ये इच्छाएँ उस पेड़ के पत्तों के समान हैं, जिसकी जड़ें अभी जीवित हैं। (2) ससीम - यह इच्छाओं की वह श्रेणी है, जिसमें उत्पन्न होने वाली इच्छाएँ अन्तसहित होती हैं, क्योंकि इच्छाओं की अधिकतम सीमा सुनिश्चित हो जाती है। मूलतः यह मिथ्यात्व दशा से मुक्त, किन्तु अविरति दशा से युक्त व्यक्ति की दशा है, जिसमें वह प्रमाद, कषाय एवं योग - इन तीनों से युक्त भी होता है। इस अवस्था में व्यक्ति अपनी इच्छाओं का सहर्ष पोषण करने के बजाय इन्हें कमजोरी मानता है और औषधिवत् ही इनकी पूर्ति करता है। ये इच्छाएँ उस पेड़ के हरे-भरे पत्तों के समान हैं, जिसकी जड़ों को हाल ही में नष्ट कर दिया गया हो।
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अध्याय 10 : अर्थ-प्रबन्धन
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