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________________ (3) अल्प यह इच्छाओं की वह श्रेणी है, जिसमें उत्पन्न होने वाली इच्छाएँ और अधिक नियंत्रित हो जाती हैं, क्योंकि अर्थ - प्रबन्धक अपनी इच्छाओं का आंशिक त्याग करने के लिए संकल्पित हो जाता है। मूलतः यह मिथ्यात्व दशा से पूर्णतया एवं अविरति दशा से अंशतः (एकदेश) निवृत्त होने की दशा है, जिसमें अर्थ - प्रबन्धक प्रमाद, कषाय व योग इन तीनों से युक्त होता है। इस दशा को जैनदर्शन देशविरति श्रावक की दशा भी कहा जाता है। ये इच्छाएँ सूखे पेड़ के हल्के पीले पत्तों के समान हैं, जिसकी जड़ें पूर्व में ही नष्ट हो चुकी हों । (4) अल्पतम यह इच्छाओं की वह श्रेणी है, जिसमें उत्पन्न होने वाली इच्छाएँ न्यूनतम हो जाती हैं। और अर्थ-प्रबन्धक गृहस्थ जीवन का सर्वतः परित्याग करके मुनि दशा की प्राप्ति कर लेता है। उसकी सांसारिक इच्छाओं का तो विसर्जन हो जाता है, किन्तु धर्म एवं मोक्ष के हेतु से अतिसीमित इच्छाएँ अभी शेष रहती हैं। मूलतः यह मिथ्यात्व एवं अविरति से मुक्त व्यक्ति की दशा है, जिसमें वह प्रमाद, कषाय व योग इन तीनों से युक्त होता है। इसमें वह कभी प्रमादसहित और कभी प्रमादरहित दशा में विचरण करता रहता है। ये इच्छाएँ सूखे पेड़ के पीले पत्तों के समान हैं, जो अब गिरने ही वाले हैं। - - (5) शून्य यह वह श्रेणी है, जिसमें राग-द्वेष एवं कषायों का सम्पूर्ण क्षय हो जाने से प्रबन्धक में इच्छाओं का पूर्ण अभाव हो जाता है। मूलतः यह मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद एवं कषाय से मुक्त प्रबन्धक की वह दशा है, जिसमें कुछ काल के लिए योग शेष रहता है और अन्ततः वह भी समाप्त हो जाता है। यह दशा उस पेड़ के समान है, जिसकी जड़ें पूर्णतया सूख चुकी हैं, वह पत्तों से विहीन हो रहा है और उस पर अब कभी भी पत्ते पल्लवित नहीं होंगे। 48 - - उपर्युक्त पाँच श्रेणियों में क्रमशः आगे बढ़ता हुआ अर्थ - प्रबन्धक अन्ततः पंचम श्रेणी की दशा को प्राप्त कर सकता है और यही अर्थ - प्रबन्धक की आदर्श अवस्था है। इनका भी विस्तृत विवेचन इस अध्याय के अन्त में किया गया | Jain Education International 10.6.7 परिग्रह का सीमाकरण: परिग्रह - परिमाण व्रत 166 यदि धन, धान्य, सोना, चाँदी, चतुष्पद, द्विपद आदि से परिपूर्ण यह समग्र संसार भी किसी लोभी मनुष्य को दे दिया जाए, तो भी उसे सन्तोष होने वाला नहीं, उस लोभी आत्मा की तृष्णा शान्त होना बहुत कठिन है, परन्तु जो परिग्रह के मोहपाश को स्पष्ट रूप से समझ जाता है, उसे परिग्रह एक प्रपंच, भार और कष्ट रूप महसूस होता है। इससे निवृत्ति पाने हेतु वह आत्मलक्षी होकर परिग्रह की अनन्तता से शून्यता की यात्रा प्रारम्भ करता है। इस यात्रा साधक परिग्रह को क्रमशः सात्विक, संक्षिप्त एवं समाप्त करता चला जाता है। वस्तुतः, यही परिग्रह के सीमाकरण की सम्यक् दिशा है। आधुनिक भौतिकवादी दृष्टिकोण पर आधारित अर्थ - प्रबन्धन यदि व्यक्ति की इच्छाओं (परिग्रह) को असीमित करके उसे अधिक से अधिक समृद्ध और सम्पन्न बनाता है, तो जैनदृष्टिकोण पर आधारित अर्थ-प्रबन्धन उसे अर्थ के सीमांकन की ओर ले जाकर अधिक से अधिक शान्त और प्रसन्न बनाता है। जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व For Personal & Private Use Only 576 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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