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________________ 2) वर्तमान की वस्तुओं सम्बन्धी इच्छा - उदाहरणार्थ, 'आज यह खरीदना है, यह बेचना है' इत्यादि । 3) अनागत की प्राप्य या अप्राप्य वस्तुओं सम्बन्धी भय, चिन्ता एवं कल्पना - उदाहरणार्थ, 'मुझे पाँच-दस सालों में मकान बनाना है, गाड़ी खरीदना है, अमुक तोले सोना खरीदना है' या 'मेरी फैक्ट्री या दुकान नहीं चली, तो मेरा क्या होगा?' इत्यादि । अतः कहना होगा कि इन तीनों का सम्यक् संयम करना जीवन-प्रबन्धक का एक आवश्यक दायित्व है। अर्थ-प्रबन्धन की दृष्टि से भी देखें, तो बाह्य की अपेक्षा आभ्यन्तर परिग्रह का सीमाकरण अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि अंतरंग इच्छाओं को नियंत्रित किए बिना बाह्य परिग्रह का त्याग निष्फल होता है। इसमें हठ की मुख्यता होती है और विवेक की गौणता, जिससे बाह्य-परिग्रह का सीमाकरण भी स्थायी एवं आनन्दकारी नहीं बन पाता। अतः अर्थ-प्रबन्धन के लिए बारम्बार अनासक्तिपूर्वक जीने का अभ्यास करना ही श्रेयस्कर है। व्यक्ति को चाहिए कि वह विविध पदार्थों का आवश्यकतानुसार उपयोग तो करे, किन्तु पदार्थों में आसक्त होकर न जिए। वह यह मानने की भूल न करे कि ये बंगला, धन, गाड़ी, पत्नी, पुत्र, दुकान आदि मेरे हैं। 164 सदैव जागृति रखे कि ये सब अनित्य , अशरण , असार और संयोगी है। इनका वियोग अपरिहार्य है। अतः ये मेरे नहीं हैं और इनसे मुझे अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए। यही सुख एवं शान्ति का मार्ग है। 10.6.5 अंतरंग परिग्रह के मूल कारण अर्थ-प्रबन्धन के लिए अंतरंग-परिग्रह के कारणों को जानना अत्यावश्यक है। जैनदर्शन में इस हेतु पाँच कारणों का उल्लेख किया गया है, जो इस प्रकार हैं-165 क्र. अंतरंग-परिग्रह विवरण के कारण 1) मिथ्यात्व यह आत्मा का वह भाव है, जिसके कारण उसे वस्तु (अर्थ) के सम्यक् स्वरूप का यथार्थ श्रद्धान नहीं हो पाता। उल्टा, वह भ्रान्ति में जीती हुई पर-पदार्थों से सुख-प्राप्ति की कामना करती रहती है और इससे ही उसमें इच्छाएँ उत्पन्न होती रहती हैं। 2) अविरति यह आत्मा का वह भाव है, जिसके कारण वह परिग्रह आदि दोषों से विरक्त (अंशतः या पूर्णतः) नहीं हो पाती। वह पाँच इन्द्रियों और मन के विषयों से जुड़कर हिंसा आदि पापा कार्यों में संलग्न रहती है। इससे भी उसमें इच्छाएँ उत्पन्न होती रहती हैं। 3) प्रमाद यह आत्मा का वह भाव है. जिसके कारण वह आत्म-स्वरूप की जागति खो देती है एवं कर्तव्य-अकर्तव्य के प्रति उचित सावधानी नहीं रख पाती। इससे भी उसमें इच्छाओं की उत्पत्ति होती रहती है। 46 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 574 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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