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10.6.4 अंतरंग-परिग्रह की प्रधानता
यद्यपि जैनदर्शन में परिग्रह के दो भेद बताए गए हैं - आभ्यन्तर परिग्रह एवं बाह्य परिग्रह, फिर भी यह जानना आवश्यक है कि इन दोनों में आभ्यन्तर (अंतरंग) परिग्रह की ही प्रधानता है, बाह्य परिग्रह की नहीं। यह बात निम्न बिन्दुओं से स्पष्ट है - ★ जैनाचार्यों ने बाह्य वस्तुओं को परिग्रह नहीं कहते हुए मूर्छा को ही परिग्रह कहा है, क्योंकि बाह्य वस्तुओं के न होने पर भी 'यह मेरा है' ऐसा संकल्पवाला व्यक्ति परिग्रहसहित ही होता
है।162
★ बाह्य परिग्रह का मूल कारण भी अंतरंग परिग्रह ही है, क्योंकि व्यक्ति बाह्य वस्तुओं का ग्रहण एवं संग्रह तभी करता है, जब अंतरंग में उनके प्रति मूर्छा होती है। कहा भी गया है – विषयों का ग्रहण कार्य है, जबकि मूर्छा कारण है और कारण नष्ट हो जाने पर कार्य सम्भव नहीं है। अतः जो भाव से निवृत्त है, वही वास्तव में परिग्रहरहित होता है। ★ मूल में अंतरंग-परिग्रह के अभाव में कितना भी बाह्य परिग्रह क्यों न हो, उसे परिग्रह नहीं कहा
जा सकता, जबकि अंतरंग परिग्रह के सद्भाव में कितना ही अल्प संग्रह क्यों न हो, उसे परिग्रह ही मानना चाहिए। इस प्रकार, हमें यहाँ दो बिन्दु प्राप्त होते हैं - क) अधिकतम वस्तुओं के बीच रहते हुए भी मूर्छा की कमी होने से व्यक्ति अल्प परिग्रही होता है। उदाहरणार्थ, महाराजा भरत , राजा जनक इत्यादि महलों में रहकर भी अपरिग्रही कहलाए। ख) अल्प वस्तुओं से जीवनयापन करते हुए भी मूर्छा और लालसा के सद्भाव में व्यक्ति गाढ़ परिग्रही होता है। उदाहरणार्थ, कालसौकरिक कसाई, जो प्रतिदिन पाँच सौ पाड़ों को मारता था, को राजा श्रेणिक ने एक दिन के लिए कुएँ में उतार दिया, जिससे वह हिंसा न कर सके। किंतु, उसे हिंसा किए बिना चैन नहीं पड़ा। वहाँ भी उसने कीचड़ (मिट्टी) के पाड़े बना-बनाकर मारे। इस प्रकार, गाढ़ पापकर्म करके सातवीं नरक में गया। 163 आशय यह है कि वस्तु मौजूद न होने पर भी उसके प्रति मूर्छा होने से व्यक्ति भावों से भी परिग्रही बन जाता है।
चूँकि परिग्रह का मूल सम्बन्ध मूर्छा भाव से है और यह मूर्छा भाव अतीत, वर्तमान एवं अनागत - इन तीनों से सम्बन्धित हो सकता है, अतः व्यक्ति की अतीत सम्बन्धी रागयुक्त स्मृतियाँ, वर्तमान में विद्यमान पदार्थों के प्रति आसक्तियाँ और भविष्य सम्बन्धी आकांक्षाएँ - ये सभी परिग्रह ही हैं। इस प्रकार, परिग्रह के काल-आश्रित तीन भेद सम्भव हैं, जो निम्न उदाहरणों से स्पष्ट हैं - 1) अतीत में प्राप्त या अप्राप्त वस्तुओं सम्बन्धी मूर्छा भाव -
उदाहरणार्थ, 'काश! मैंने वह जमीन खरीदी होती, तो मैं भी आज करोड़पति होता' अथवा 'काश! मैंने वह जमीन नहीं बेची होती, तो मैं आज करोड़पति होता' इत्यादि।
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अध्याय 10: अर्थ-प्रबन्धन
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