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________________ 10.6.3 अंतरंग एवं बहिरंग परिग्रह का सहसम्बन्ध जैनाचार्यों ने भिन्न-भिन्न प्रसंगों में परिग्रह के तीन रूप बताए हैं - 1) इच्छा, 2) मूर्छा एवं 3) संग्रह। 158 इन तीनों में भी परस्पर सम्बन्ध हैं, जिनके माध्यम से अंतरंग एवं बहिरंग परिग्रह के सहसम्बन्ध को और स्पष्टता से समझा जा सकता है। यह उल्लेखनीय है कि जहाँ इच्छा एवं मूर्छा अंतरंग परिग्रह के ही रूप हैं, वहीं संग्रह बाह्य परिग्रह का रूप है। सर्वप्रथम, व्यक्ति में अप्राप्त वस्तु के लिए इच्छा उत्पन्न होती है। फिर इच्छित पदार्थ के प्रति मूर्छा उत्पन्न होती है और जिस पर मूर्छा अर्थात् गृद्धता होती है, उसका त्याग नहीं हो पाता, अतः व्यक्ति उसका संग्रह करता है। इस प्रकार, इच्छा से मूर्छा एवं मूर्छा से संग्रह-वृत्ति का जन्म होता है। दूसरे शब्दों में, अंतरंग एवं बहिरंग परिग्रह के मध्य कारण-कार्य सम्बन्ध होता है। ___अर्थ-प्रबन्धन के अभाव में व्यक्ति अपनी इच्छा, मूर्छा एवं संग्रह-वृत्ति से कभी सन्तुष्ट नहीं होता और यह असन्तुष्टि ही उसके दुःख का मूल कारण बन जाती है। उसकी इच्छाओं का प्रवाह अतितीव्र होता है और उसे जितनी ज्यादा सामग्रियाँ मिलती जाती हैं, उसकी र और बढ़ती जाती है। जैन-साहित्य में सुभूम चक्रवर्ती का मार्मिक कथानक मिलता है, जो तृष्णा की अनन्तता को सिद्ध करता है। जब षट्खण्ड का आधिपत्य प्राप्त कर लेने पर भी सुभूम को तृप्ति नहीं मिली, तब उसने सातवें खण्ड को जीतने के लिए प्रयाण किया, किन्तु रास्ते में उसका यान समुद्र में डूब गया और वह काल का ग्रास बन गया। अतः अर्थ-प्रबन्धन के लिए इच्छाओं को संयमित करना एक अनिवार्य एवं प्राथमिक कर्त्तव्य है। वास्तव में अर्थ-प्रबन्धक को यह सोचना चाहिए कि 'यह क्षेत्र, वास्तु, सोना-चाँदी, पत्नी, पुत्र, बान्धव और देह आदि को छोड़कर मुझे भी एक दिन अवश्य जाना होगा। 159 कहा जा सकता है कि सुभूम चक्री सातवें खण्ड को तो नहीं जीत सका, लेकिन इतना अवश्य हुआ कि सातवें खण्ड को जीतने की आसक्ति उसे सातवीं नरक तक घसीटकर ले गई, जहाँ तैंतीस सागरोपम जितने काल तक उसे अपार दुःखों का सामना करना पड़ेगा। इसी प्रकार जो मनुष्य अज्ञानवश अनेक पाप-कृत्य करके धन कमाते हैं, वे अनेक जीवों से वैर–विरोध बाँधकर, सारी सम्पत्ति यहीं छोड़कर अन्ततः नरकावास को प्राप्त करते हैं।160 कहा भी गया है कि लोभी मनुष्य जीवन की क्षणभंगुरता को न समझकर, बिना विचारे ही सांसारिक पदार्थों पर आसक्ति रखता है और इस प्रकार धन में आसक्त होकर अपने को अमर मानता हुआ दिन-रात धन के लिए परिताप सहन करता रहता है।161 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 572 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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