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________________ चलना-फिरना, श्रम-विश्राम आदि में नियमितता, समयबद्धता तथा सम्यक् परिमाणता का बहुत अधिक अभाव हो रहा है। इससे अनेकानेक शारीरिक रोग एवं विकार उत्पन्न हो रहे हैं, जैसे - मोटापा, कब्ज , अपच, उच्च रक्तचाप, निम्न रक्तचाप, हृदयरोग, मधुमेह आदि। ★ असंयमित वाकव्यवहार - आज रिझाने, बहकाने और फुसलाने का प्रयत्न बढ़ा है। इससे अशिष्ट, असभ्य, अमर्यादित, अहितकर, अपरिमित, असत्य एवं अप्रिय वचनों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। व्यक्ति लोभ की पूर्ति के लिए चाटुकारिता, चापलूसी एवं मौकापरस्ती से युक्त वाणी का प्रयोग अधिक करने लगा है। साथ ही लोभ की पूर्ति न होने पर अशिष्ट, असभ्य अश्लील , अपमानजनक एवं तुच्छ शब्दों का प्रयोग भी बेहिचक कर रहा है। 'सत्यमेव जयते 126 के सिद्धान्त को भूलाकर झूठ को प्रगति का माध्यम मान बैठा है। ★ बढ़ता पापाचार - जो आत्मा को पतन की ओर ले जाता है, वह पाप है।17 जैनाचार्यों ने अठारह पापस्थानकों128 के सेवन से बचने का उपदेश दिया है, किन्तु आज व्यक्ति पूर्ण तन्मय होकर त्रियोग (मन, वचन एवं काया सहित) एवं त्रिकरण (करना, कराना एवं अनुमोदन करने सहित) से इनका सेवन कर रहा है। इतना ही नहीं, वह पाप-सेवन को अनिवार्य एवं उचित भी मान रहा है। यह गिरते हुए संस्कारों की ही अभिव्यक्ति है। ★ पुण्य का व्यय, पाप की आय - पूर्वसंचित पुण्य कर्मों को भोगकर नवीन पाप कर्मों का संचय करना जीवन के 'टोटल लॉस' (दिवाला) के समान है। आज यही हो रहा है। जैनाचार्यों के अनुसार, इन पाप कर्मों का फल अनन्तकाल (70 कोडाकोडी सागरोपम) तक भी भोगना पड़ सकता है।129 आशय यह है कि व्यक्ति कर्म करने में तो स्वतंत्र है, किन्तु उनका फल भोगने में स्वतंत्र नहीं। 130 नैतिक सिद्धान्तों का पतन – बचपन से ही माता-पिता, बुजुर्गों, गुरुजनों आदि हितैषियों से नैतिक, चारित्रिक तथा धार्मिक हितोपदेश प्रायः सभी को प्राप्त होते हैं। इससे बालक में देश-प्रेम, समाज-प्रेम, पशु-प्रेम, प्रकृति-प्रेम आदि कोमल भावनाएँ अंकुरित, पोषित, पल्लवित एवं फलित होती हैं, किन्तु शिक्षार्थी से धनार्थी बनते ही नैतिक आदर्श एवं मूल्य लुप्त हो जाते हैं तथा इनके स्थान पर कठोरता, निर्दयता एवं स्वार्थ के संस्कार बहुत शीघ्र पनपने लगते हैं। उदाहरणस्वरूपशिक्षार्थी धनार्थी सबके साथ वही व्यवहार करो, जो तुम्हें अपने लिए पसन्द है131 जितना चूस सको, उतना चूस लो व्यक्ति को सिर्फ पेट के लिए कमाना चाहिए मुझे तो पेटी के लिए कमाना है। जीओ और जीने दो जीवो जीवस्य भोजनम् पाहए 28 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 556 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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