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________________ ★ सामाजिक कर्तव्यों की उपेक्षा – वर्तमान में 'वसुधैव कुटुम्बकम्' 119 की भावना को मिटाकर व्यक्ति व्यक्तिवादी एवं स्वार्थी बनता जा रहा है। जहाँ प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभावना120 जन-जन में व्याप्त थी, वहीं आज का जीवन-सूत्र बन गया है - 'मैं, मेरा धन, मेरी सम्पत्ति एवं मेरी प्रतिष्ठा'। इस प्रकार की स्वार्थपरक सोच से दूसरों के प्रति असम्मान एवं अनादर की भावना बढ़ रही है। इससे न केवल सामाजिक विकास अवरुद्ध हुआ है, अपितु समाज से प्राप्त होने योग्य उचित मार्गदर्शन, अनुभव एवं शिक्षाओं से भी व्यक्ति वंचित हो रहा है, क्योंकि आपसी दूरियाँ बढ़ रही हैं तथा स्वस्थ संवाद का अभाव हो रहा है। ★ असन्तोष - आज जिस गति से इच्छाएँ बढ़ रही हैं. उस गति से संसाधनों की आपर्ति नहीं हो रही है और न ही हो सकती है। व्यक्ति भले ही इच्छाओं को अनन्त कर ले, किन्तु साधनों को अनन्त नहीं बना सकता। कहा भी जाता है – Desires may be unlimited, but the means are always limited 1121 इसका यही परिणाम है कि समृद्धि एवं सम्पन्नता के बावजूद व्यक्ति असन्तोष से ग्रस्त है। ★ तनाव - यह वर्तमान युग का सर्वाधिक प्रचलित रोग है। व्यवसाय अथवा पेशे के अन्तर्गत कार्यों की जटिलता, समस्याओं की संगीनता, सफलताओं की अनिश्चिन्तता एवं अन्य कारणों से व्यक्ति हैरान, परेशान तथा तनावग्रस्त रहता है।122 ★ प्रलोभन – आज नेता, अफसर, व्यापारी, उपभोक्ता आदि सभी की नीति एवं नीयत 'अर्थ' के प्रलोभन में पड़कर डगमगा रही है। आत्मा की आवाज दब रही है, जबकि लोभ प्रबल हो रहा ★ भय - अर्थ के उपार्जन एवं संरक्षण के लिए व्यक्ति अत्यधिक सन्देहशील, संवेदनशील तथा भयभीत रहने लगा है। उसे प्रतिसमय व्यापार में घाटे का भय, आर्थिक प्रतिस्पर्धा में पिछड़ने का भय, लुट जाने का भय, अपहरण का भय और मृत्यु का भय सता रहा है। 124 ★ ईर्ष्या - जैसे-जैसे अर्थ का आकर्षण बढ़ रहा है, वैसे-वैसे ईर्ष्या भावना भी बढ़ रही है तथा प्रमोद-भावना ओझल होती जा रही है। बड़े-बड़े धनिक लोगों में भी ईर्ष्या-वृत्ति का आधिक्य देखने को मिल रहा है। 125 ★ मनोरोग - अर्थ-केन्द्रित नीति से निरन्तर अर्थ सम्बन्धी चिन्ताएँ सताती रहती हैं। इससे मानसिक निराशा, अवसाद, अशान्ति, अस्थिरता, क्षोभ, चिड़चिड़ापन, उत्तेजना, चंचलता, मनोदैहिक रोग (Psychosomatic Diseases) आदि बढ़ रहे हैं। अनिद्रा अथवा अतिनिद्रा की समस्या होना आज सामान्य बात है। सिरदर्द, आधाशीशी (Migrain), चक्कर, मिर्गी, लकवा एवं ब्रेन हैमरेज आदि खतरनाक रोग भी अर्थ के कारण ही बढ़ रहे हैं। ★ शारीरिक रोग – व्यावसायिक–भार की अधिकता होने से शरीर की उचित देखभाल भी नहीं हो पा रही है। प्रायः सभी शारीरिक गतिविधियों, जैसे - जागना-सोना, खाना-पीना, 555 अध्याय 10 : अर्थ-प्रबन्धन 27 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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