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________________ • मकान-दुकान-गोडाउन किराए पर लेकर खाली नहीं करना। • जुआ-सट्टा खेलना। • गुण्डे-बदमाश आदि की मदद से आर्थिक वसूली करना/करवाना। • तस्करी, स्मगलिंग, अपहरण, नकली नोट, नकली दवाइयाँ, नकली स्टाम्प, नकली पंजीयन आदि राष्ट्र-विरोधी कार्य करना। • चोरी, लूट-पाट एवं डकैती आदि करना। • व्यावसायिक गोष्ठियों में शराब, सिगरेट, मांस आदि का सेवन करना/कराना। • अफसर, ग्राहक आदि को खुश करने के लिए वेश्याओं अथवा कॉल-गर्ल्स की व्यवस्था करना इत्यादि। ★ भ्रष्टाचार - आचार्य भद्रबाहु कहते हैं – सम्पूर्ण जिनवाणी का सार 'आचार' है।113 आचार्य मनु भी कहते हैं - आचार ही प्रथम धर्म (कर्त्तव्य) है।114 किन्तु, आज भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी पैठती जा रही हैं। आज का जीवनसूत्र है – “पैसा खिलाओ और काम कराओ'। इसका एक उदाहरण है – सन् 1997 की स्वतः प्रकटीकरण योजना (V.D.S.), जिसमें 33 हजार करोड़ रूपए के काले धन की घोषणा लोगों ने की। आश्चर्यजनक है कि यह राशि भी वास्तविक काले धन की केवल 3% ही थी।115 ★ शोषण - अर्थ के कारण ही कम से कम पारिश्रमिक देकर अधिक से अधिक काम करवाने की वृत्ति बढ़ रही है।116 ★ वेश्यावृत्ति - कहीं-कहीं तो देह-व्यापार (वेश्यावृत्ति) जैसे अमानवीय कार्य के लिए भी लायसेन्स दिए जा रहे हैं। * आपराधिक वृत्तियाँ – इसमें भी अर्थ एक महत्त्वपूर्ण कारण है। चोरी, डकैती, लूट-पाट, हत्या, अपहरण जैसे आपराधिक कृत्यों की जड़ में धन ही काम कर रहा है। अर्थ की समस्या न हो तो इतनी संख्या में जेल, कोर्ट, वकील, पुलिस, जज एवं अपराधी न बढ़ते। ★ पारिवारिक कर्तव्यों की उपेक्षा - अर्थ-केन्द्रित अर्थनीति से पारिवारिक सम्बन्धों में आत्मीयता एवं संवेदनशीलता का बहुत अधिक ह्रास हुआ है। राम-भरत, महावीर-नन्दीवर्द्धन, कृष्ण-बलराम जैसा भ्रातृ-प्रेम तो विरल हो गया है। हाँ! जायदाद को लेकर झगड़े, मारपीट, हत्या एवं कोर्ट-केस होना आम बात हो गई है। इसका एक उदाहरण है - अम्बानी बन्धुओं के बीच सम्पत्ति के बँटवारे को लेकर विवाद होना। आज अर्थोपार्जन में अतिव्यस्त होने से व्यक्ति न माता-पिता की सेवा, न पत्नी से स्नेह और न ही बच्चों की उचित परवरिश कर पा रहा है। इससे न केवल मतभेद , बल्कि मनभेद भी बढ़ते जा रहे हैं। किसी समृद्ध परिवार की झलक है । - 'बाप मीटिंग में, माँ पार्टी में और बच्चा आया की गोद में'।118 26 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 554 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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